एक खामोश सी आवाज़ से हम शिकवा क्या करें,
बुत बनी हुई इस ज़िन्दगी से हम रुसवा क्या करें...

सुनाने दर्द का किस्सा हमें उसीने मजबूर बनाया
दिल के करीब बुला कर भी ना कभी दिल में बसाया...

चुक का रेला ये वक़्त का उसने कुछ अरमान यूँ सजाये,
चमकते सितारों की सोच में हम पर यूँ एहसान ही जताए...

वफ़ा से शिकवा भी कर ले वो हर चाल में मज़बूरी थी,
खफ़ा हुई इस ज़िन्दगी में भी ज़ीने की मज़बूरी थी...

तड़पती हर शाम उम्मीदों में निगाहे दरबदर बहकी,
उम्मींदों के इंतज़ार मे ही साया देख कर यूं चहकी ,

नाचते मोरे के आंसूं देखकर भी रोया हैं,
देखो मौत के साये में यह रूह भी सोई हैं

तारीफ़ की आदत हमेशा, शिकवा न कर पाएँगे
बहे आंसूं भले ही पर इनारा भी ना कर पाएंगे...

टूटी हुई कश्ती के लिए शिकायत किससे करें?
उठे तूफान भी हम खुदा से इनायत क्या करे...