१.
जिन्दगी को हाँ कह दी है

एक कली भोर की मुस्कुराहट पहन
रात का शबनबी कम्बल उतार
पँखुड़ी-पँखुड़ी अँगड़ाई ले
सँवर उठी है मेरे मुक़द्दर की
उन डालियों पर
जहाँ ज़र्द पीले पत्तों का
कमज़ोर सा सरमाया था
टूट पड़ने को आतुर
जैसे मेरी साँसें
जो अब बूरी तरह खटकने लगी हैं
तुम्हारे सीने में
मेरे नाजुक बदन का
यह पहाड़ सा दर्द
जिसको देखते हुए बूझते
तुम काँप जाते हो मुझसे
तो सुनो मैंने मौत को
अभी
इंकार कर दिया है
और
जिन्दगी को शहंश कह दी है।

२. उतरते मार्च की चंद तारीखें

आज फिर चली हैं फागुनी हवाएँ
मन हुआ
आँगन में फिर महकें
सफेद फूल जुही के
फिर पकी निंबोली टपकें
तोते मँडराएँ
मुट्ठी भर आसमान फिर हो जाए अपना सा
फिर घोला जाए सत्तू चिलचिलाती दोपहर में
कहीं दूर पपीहा टेरे
कहीं दूर कच्चे आमों की महक
ले आएं हवाएँ
टूटी खिड़की के अंदर तक
तुम देखो अवष भाव से
कि तुम ला सकते हो सितारे
आकाश से तोड़कर मेरे लिए
और मैं
फिर देखूँ
दहलीज के पास उतारे
तुम्हारे फटे जूतों को
किवाड़ पर टँगी
तुम्हारी रफ़ पतलून को
क्यों मौसम छल जाता है अक्सर
क्यों याद आता है भूला सब
बार बार...!