१. पतझड़

ये सूखे, शाख़ों से रूठे से पत्ते
हवा में खड़कते, लरजते ये पत्ते
बहारों में नाज़ुक सी कोपल में उभरे
शाख़ों की उँगली में मरकत से पनपे

इवा गुदगुदाती तो शरमा के पत्ते
लुके जाते अपनी ही डालों में पत्ते
लरजते सरसते से रूमानी पत्ते
बहकते, सम्हलते, मचलते ये पत्ते

मगर आज पीले, रूठे से पत्ते
झरे जा रहे हैं
खि़ज़ाँ से सहमते झरे जा रहे है।
हवा एक बौरायी महबूबा जैसी
बिफ़रती, खड़कती
बियाबाँ में अपनी चीखें पिरोती
अपने महबूब पत्तों की मैयत उठाए
चली जा रही है
झरे पत्र पर सर धुने जा रही है
चली जा रही है, चली जा रही है।

2. नदी तुम रूको
नदी तुम रूको
तो मैं पल्लू पकड़ लूँ
तो मैं लहरों पे लिख दूँ
कई चिट्ठियाँ
नदी तुम रूको
वक्ष पर मैं तुम्हारे हथेली धरूँ
और हथेली में लाखों लकीरें भरूँ
अपने शब्दों के रूमाल
शँखों में बाँधू
भावुक सी कुछ सीपियाँ
तुमसे माँगू
नदी तुम रूको
चाँद का अक्स मुझको उठाने तो दो
मेरे हाथों को कुछ मुस्कुराने तो दो
नदी तुम रूको
मेरी जानिब झुको


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