(१)
भरी दोपहर में वो कोई ख़्वाब देखता था

क़ाग़ज के पर देकर मेरी परवाज़ देखता था.

दबा कर चंद तितलियाँ मेरे तकिये के नीचे

मौहब्ब्त के नये आदबो-अख़्लाक देखता था.

कभी दस्त चूमता था, कभी पेशानी मेरी

सजा सजा के मुझे मेरे नये अंदाज़ देखता था.

हर सुबह बाँधता था जुगनुओं के पाँव में घुँघरु

फ़िर उनका रक़्स वो सरे बाज़ार देखता था.

जब से होने लगी है मेहराब मेरे घर की ऊँची

अजीब खौफ़ से मेरा अहबाब मुझे देखता था.

वो मौज़िज़ भी था मौतबर, और मुहाफ़िज भी

भंवर में पड़ी कौम को वो बस दूर से देखता था.

मश्विरा है "शम्स" कि ख़्वाब अपना न बताये कोई

वो बेवज़ह लुट ही गया हाकिम खामोश देखता था.

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(२) मुल्ला

मुल्ला चढ़ा मचान पे देवे सबको रुलाये !

कोई पीटे छाती अपनी कोई नीर बहाये !!

कोई रोवे जोर से कोई अपना खून बहाये !

गुपचुप बैठा मुल्ला देखे जनता रोल मचाये !!

अली को मारा दुश्मन ने हुये हजारों साल !

मुल्ला की देखो शैतानी मारे उसे हर साल !!

मारे उसे हर साल चला रखा है गोरख धंदा !

दसवां-चालीसवां का टोटका होने दे मन्दा धंदा!!

या अली कर मदद मरवावे बार बार ये नारा !

कर लेता वो खुद मदद आपणी काहे जाता मारा !!

किस्से गढ़ गढ़ के सुनावे था उसका घोड़ा न्यारा !

मितरो और कुनबे में से था नबी का सबसे प्यारा !!

था अगर जो प्यारा फ़िर क्यों लगा था लडने !

सत्ता के संघर्ष में क्यों वो जाने लगा था मरने !!

सफ़विद की थी मजबूरी मुल्ला को दिया था काम !

किस्से पढ़ पढ़ कर वो सुनावे पावे राजा से इनाम !!

जीवित का कभी मान करे मरे को पूजे जीभर !

गंदा रहे साल भर मुहर्रम में खुश्बु से रहे तरबतर !!