[1] आग

जब
जंगल में

लगती है आग
तब
केवल घास
या
पेड़ पौधे ही नहीं
जीव-जन्तु भी जलते हैं
अब भी वक्त है
समझ लो
जंगल के सहारे
जीव-जन्तु ही नहीं
आदमी भी पलते हैं

[2]
याद

यादें ज़िन्दा हैं तो
ज़िन्दा है आदमी
जब जब भी
यादें मरती हैं
मर जाता है आदमी !

भुलाना आसान नहीं ;
षड़यंत्र है
जिसे रचता है
खुद अपना ही
भुलाना शरारत है
और
याद रखना है इबादत
भुलाना भी
याद रखना है
अपने ही किस्म का

कुछ लोग
कर लेते हैं
कभी-कभी
ऐसे भी
जानबूझ कर
भूल जाते हैं
लेकिन नहीं हैं
ऐसे शब्द
मेरे शब्दकोश में

[3]
खत

जब खत हो
गत क्या जानें
गत-विगत सब
खत--किताबत में
खतावर क्या जानें
नक्श जो
छाया से उभरे
उन से
कोई बतियाए कैसे
बतिया भी ले
उत्तर पाए कैसे ?

बिन दीवारों के
छत रुकती नहीं
फ़िर हवा में मकाम
कोई बनाए कैसे ?

नाम ले कर
पुकार भी ले
वे सुनें क्योंकर
लोहारगरों की बस्ती में
जो बसा करे !

[4]
सबब

धूप की तपिश
बारिश का सबब
बारिश की उमस
सृजन की ललक
सृजन की ललक
तुष्टि का सबाब
यानी
हर क्षण
हर पल
विस्तार लेता अदृश्य सबब !

सबब है कोई
हमारे बीच भी
जो संवाद का
हर बार बनता है सेतु
मेरी समझ से
कत्तई बाहर है
कि मैं किसे तलाशूं
संज्ञाओं को
विशेष्णों को
कर्त्ताओं को
या फ़िर
संवाद के सबब
किन्हीं तन्तुओं को
या कि सबब को ही !

[5]
कब

कलि खिलती है तो
फ़ूल बन जाती है
फ़ूल खिलते हैं तो
भंवरे गुनगुनाते हैं

धूप खिलती है तो
चेहरे तमतमाते हैं
चेहरे खिलते हैं तो
सब मुस्कुराते हैं
यूं सब मुस्कुराते हैं तो
सब खिलखिलाते हैं \

यहां जमाना हो गया
कब खिलखिलाते हैं ?

[6]
चेहरा मत छुपाइए

हर आहत को
मिले राहत
ऐसा कदम उठाइए
खुशियां हों
हर मंजिल
ऐसी मंजिल चाहिए

हो कठिन
अगर डगर
खुद बढ़ कर
कंवल पुष्प खिलाइए

चेहरे पढ़ कर भी
मिल जाती है राहत
खुदा के वास्ते
चेहरा मत छुपाइए !

[ 7]
मन निर्मल

जगें
सोएं
बस
आपके कांधे पर
सिर रख कर
रोएं !

पहलू में आपके
सोना
रोना
थाम ले मन
बह ले
अविरल
दिल का दर्द
आंख से
आंसू बन कर
हो ले मन निर्मल
औस धुले

तरू पल्लव सरीखा

कितना ज़रूरी है
तलाशूं पहले तुम्हें
तुम जो अभी
अनाम-अज्ञात
हो लेकिन
कहीं कहीं

बस मेरे लिए
मेरी ही प्रतिक्षा में !

यही प्रतिक्षा
जगाती है हमें
देर रात तक
शायद हो जाएगी
खत्म कभी तो
कहता है
सपनों में
हर रात कोई !