(अपने पिता जी से सुनी बचपन की एक कहानी जो सत्य घटना पर आधारित है | पात्रों के नाम काल्पनिक हैं|)

सेठ मूलचंद का अपने इलाके में में बहुत नाम था| वह बहुत ही रईस थे | कई गाँव के जमींदार| और बहुत धर्मात्मा दानी |न्होंने कई अस्पताल बनवाये, पानी के लिए कुंवे बनवाये, अस्पताल बनवाये , मंदिर बनवाये, वस्त्र और भोजन वितरण करते- साधुसंतो और दीन दुखियों के लिए|
एक बार मिशन वाले अपने स्कूल के लिए चंदा लेने सेठ जी के पास गए | क्यूंकि निर्माण कार्य अभी शुरू हुवा ना था तो उन्हें बहुत बड़ी धनराशी की आवश्यकता थी| काफी सहमे से थे| बड़ी हिम्मत कर वो सेठ जी के पास पहुंचे| शाम का धुंधलका था| सेठ जी अपने मुनीम के साथ बैठे दिनभर का हिसाब किताब लेखा जोखा मिला रहे थे| कमरे में अँधेरा था अतः सेठ जी ने एक मोमबत्ती कमरे की मेज में जला रखी थी| और जहां वह हिसाब किताब देख रहे थे वहाँ दो मोमबत्ती जलीं थी| सेठ जी ने सम्मान के साथ आगंतुको को बैठाया और अपने कार्य में फिर तल्लीन हो गए|
सेठ जी का कार्य निबटा तो सेठ जी ने अपने कागज लेखनी संभाली फिर उन्होंने मोमबत्तीया बुझा दी| अब कमरे मे सिर्फ एक मोमबत्ती जली थी और मधिम रौशनी थी| उन्होंने आगंतुको से मुखातिब हो कर पूछा की, क्या कार्य है, जिसकी वजह से उनेह, उनके पास आना पड़ा| आये हुवे लोगों से कुछ कहते ना बना| उन्हें लगा कि इस व्यक्ति से क्या उम्मींद करे जो इतना कंजूस है | सेठ जी ने दुबारा पूछा तो उन्होंने हताशा भरे शब्दों में कहा कि वे स्कूल के लिए चंदा एकत्र करने आये थे|
ये बात सुनते ही सेठ जी के चेहरे पर चमक आ गयी और उन्होंने सहर्ष दो लाख की एक बड़ी राशी मिशन के लिए देने की इच्छा जाहिर की| जो कि आज के परिपेक्ष में करोडो में आंकी जाएगी| आगंतुको के मुंह खुले के खुले रह गए आश्चर्य से उनसे कुछ कहते ना बन रहा था| आखिरी में उन्होंनें पूछ ही लिया कि सेठ जी आपसे हमें ऐसी उम्मीद न थी जो आपने इतनी बड़ी रकम दे डाली ..और हमें तो कहीं और चंदा लेने की जरूरत भी न रही| तो सेठ जी मंद मंद मुस्कुराते हुवे बोले कि मेरे जीवन का सिद्धांत है कि जरूरत के लिए वस्तु का प्रयोग हो न कि फिजूल खर्ची के लिए ..ये तो सिर्फ एक मोमबत्ती को देखा है आपने.. मैंने जीवन में हर कदम पे जरुरत के लिए कोई कमी ना कि पर फिजूलखर्ची से बचा और जो भी मे बचा सका और कमा सका मैंने सदेव मानव सेवा के लिए उसका उपयोग किया| "क्योंकि विद्यालय बच्चों की जरुरत थी, समाज की जरूरत थी, अतः उसपर खर्चा करना मेरे लिए ज्यादा जरूरी था|"

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