जीवन : भावना सक्सेना
"कह-मुकरी" - योगराज प्रभाकर

(१).
इसको अपनी शान भी माना,
शाने हिन्दुस्तान भी माना,
देख हृदय हो भाव विभोर,
ऐ सखी साजन ? न सखी मोर !
(२).
इस बिन तो वन उपवन सूना,
सच बोलूँ तो सावन सूना,
सूनी सांझ है सूनी भोर,
ऐ सखी साजन ? न सखी मोर !
(३).
ऐसा न हो - वो न आए,
घड़ी मिलन की बीती जाए,
सोचूँ, देखूं शून्य की ओर,
ऐ सखी साजन ? न सखी मोर !
(४).
देख बदरिया कारी कारी,
वा की चाल हुई मतवारी,
हो न जाए ये बरजोर,
ऐ सखी साजन ? न सखी मोर !
(५).
मादक स्वर में ज्योंही पुकारे,
सजनी भूले कारज सारे ,
उठे हिया में अजब हिलोर,
ऐ सखी साजन ? न सखी मोर !
(६).
देख बदरिया मचला जाए,
नृत्य से सजनी को फुसलाए,
बड़ा चतुर है ये चितचोर,
ऐ सखी साजन ? न सखी मोर !
(७).
सारा गुलशन खिल जाएगा,
कुछ भी हो पर वो आएगा,
जब आए बादल घनघोर,
ऐ सखी साजन ? न सखी मोर !
(८)
श्याम रंग, सिर कलगी सोहे,
क्या बतलाऊँ, महिमा तोहे,
चाँद कहूँ या कहूँ चकोर
ऐ सखी साजन ? न सखी मोर !
सांवली मैं वो गोरा गोरा
लगता है चंचल सा छोरा
भले वो मुझसे उम्र-दराज
ऐ सखी साजन ? न सखी ताज ! *
(१०).
जी करता इस में खो जाऊँ
इसकी गोदी में सो जाऊँ
और कहूँ क्या आए लाज
ऐ सखी साजन ? न सखी ताज ! *
(११).
रूह-ओ-दिल पे छा जाता है
सबके मन को भा जाता है,
सबके मन पर इसका राज़,
ऐ सखी साजन ? न सखी ताज ! *
चार लघुकथाएं - फ़ज़ल इमाम मल्लिक
(१) शोक
पूरी बस्ती आज अंधेरे में डूबी थी....ऐसा लग रहा था मानो किसी की मौत हो गई है जबकि आम दिनों में रातों को यह बस्ती गुलज़ार रहती है...तबले की थाप और घुंघरुओं की आवाज़ किसी-किसी घर से गूंज उठती है और पूरी बस्ती रोशनी में नहाई रहती है...रात जैसे-जैसे जवान होती है बस्ती की रौनक़ और बढ़ जाती है.....पाऊडर...ख़ुश्बू...लाली...लिपिस्टक और तरह-तरह के मेकअप लगा कर खड़ी लड़कियां आने-जाने वालों को लुभाने की हर मुमकिन कोशिश करती हैं...रोशनियों में अपने जीवन की कालिख को छुपातीं लड़कियां ग्राहकों को खुश करने में किसी तरह की कंजूसी नहीं करतीं.....आख़िर उनका धंधा ठहरा..। लेकिन बस्ती में आज अंधेरा है और घरों के दरवाजे बंद है....बस्ती के एक घर में एक लड़के ने जन्म लिया है।
( २) फ़रियाद
माई को जब पता चला कि नई आई लड़की मां बनने वाली है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा....
माई ने उसकी बलइयां लीं और दूसरी लड़कियों से साफ कह दिया उसका पूरा ख्याल रखा जाए...उस नई लड़की का अब पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता...उसके खाने-पीने से लेकर दूसरी छोटी-छोटी बातों का भी....आख़िर लंबे अरसे के बाद वहां कोई लड़की मां बनने जा रही है......। कुछ दिन बीते तो माई उस नई लड़की को डाक्टर के पास ले गईं......डाक्टर ने लड़की की जांच कर माई को तसल्ली दी...‘सब कुछ ठीक है’। माई के चेहरे पर सुख फैल गया....लेकिन अचानक माई को कोख में पलने वाले बच्चे की जानकारी हासिल करने का मन हुआ....उन्होंने डाक्टर से कहा ‘इस बच्चे की जानकारी दें, प्लीज....बेटा है या बेटी’। डाक्टर ने उन्हें टालना चाहा लेकिन माई अड़ गई। तब डाक्टर ने लड़की के कोख में पलने वाले बच्चे की जानकारी के लिए प्रीक्षण किया। जांच के बाद डाक्टर ने माई से कहा ‘मुबारक हो, लड़का है’। डाक्टर की बात सुन कर माई सन्न रह गई...‘क्या कहा लड़का ?’ ‘हां’ डाक्टर ने कहा। ‘डाक्टर हमें यह लड़का नहीं चाहिए’ उसने हाथ जोड़ दिए। ‘लेकिन क्यों’ डाक्टर हैरान थी.....‘यहां तो लोग लड़कियों को पैदा होने से पहले ही कोख में मार देते हैं और तुम लड़के को मारने को कह रही है’। ‘हां, डाक्टर...हमें लड़का नहीं लड़की चाहिए...’ माई ने कहा। ‘ऐसे क्यों’ ‘डाक्टर, आप नहीं समझेंगी बेटियां हमारे लिए कितनी ज़रूरी होती हैं....बेटे हमारे लिए बोझ होते हैं डाक्टर...मेरी बच्ची उस बच्चे को नहीं जनेगी डाक्टर....हम वेश्या जो ठहरे....’। माई की आंखों में प्रार्थना थी और डाक्टर की आंखों में हैरत।
( ३) मक़सद
आंटी के बुलावे पर नरगिस को अचंभा हुआ। उसने तो कब का धंधा छोड़ दिया था। जिस बीमारी से वह जूझ रही थी उसके बाद धंधा चालू रखना मुमकिन न था। लेकिन आंटी के बुलावे को नरगिस नज़रअंदाज भी नहीं कर सकती थी। बीमारी ने उसे थोड़ा कमज़ोर कर दिया था...कभी उसके नाम की तूती बोलती थी बाज़ार में....उसकी ख़ूबसूरती पर न जाने कितने मरते थे और एक रात की कोई क़ीमत भी देने के लोग तैयार हो जाते थे....आंटी ऐसे लोगों से निपटने में माहिर थीं....नरगिस तो उनके ख़जÞाने की सबसे क़ीमती हीरा थी जिसका आंटी ख़ास खयाल रखतीं....
नरगिस यही सब कुछ सोचती आंटी के पास पहुंची तो वहां कोई नहीं था.....आंटीने नरगिस को बाहों में भर लिया.....‘अच्छा हुआ तू आ गई’
‘तूने बुला भेजा था तो आना ही था.....कोई खास वजह’ नरगिस ने कहा।
‘हां तुझे फिर से धंधे पर लगाना है’ आंटी की आंखों में एक अजब तरह की चमक थी....ऐसी चमक पहली बार नरगिस ने देखी थी आंटी की आंखों में।
‘लेकिन आंटी.....’
‘हां मैं जानती हूं तेरे को ख़राब बीमारी है लेकिन तू घबरा मत... तेरे से समाज और देश की सेवा करवानी है’ आंटी ने बीच में ही नरगिस की बात काट डाली।
‘देश सेवा’ नरगिस ने हैरानी से पूछा।
‘हां देश सेवा...तेरी बीमारी को हथियार बनाना है मुझे’ आंटी ने कहा लेकिन नरगिस की समझ में कुछ नहीं आया।
‘नहीं समझी......देख हम तो ठहरे धंधे वाले....हमारी ज़िंदगी में उजाले की कोई नन्ही सी किरण भी नहीं है.....लेकिन हमारे जिस्म का इस्तेमाल नेताओं, अफ़सरों और सेठों को ख़ुश करने के लिए किया जाता है.....ये वे हैं जो देश को लूट रहे हैं....हम लोग क्या जानें काला धन...सफÞेद धन....लेकिन देख
करोड़ों लूट रहे हैं नेता-अफ़सर-ठेकेदार.....समाज और देश की चिंता किसी को नहीं है.....दूसरी तरफ़ पुलिस है जो अपराधियों को तो छोड़ देती है लेकिन मासूम और बेगुनाहों को मारने में सेकंड का भी देर नहीं लगाती.....तू तो जानती ही है कि हम लोगों को भी कम परेशान नहीं करते हैं ये पुलिस
वाले.....याद है न तुझे तेरे भाई को भी इन पुलिस वालों ने मार डाला था और उसका क़सूर बस इतना था कि उसने इस बात का विरोध किया था कि वे तुझे जबर्दस्ती उठा कर ले जा रहे थे.... सोनिया....शबनम...जूली...
( ४) पहली कमाई
मोहल्ले के आज हर घर में चराग जल रहा था.......रोसनियों से सारा मोहल्ला जगमगा रहा था..... फिल्मी धुन पर लोग थिरक रहे थे......हर चेहरे पर खुशी की लिखी इबारत साफ़ पढ़ी जा रही थी.....मोहल्ले में आज एक नई लड़की धंधे पर बैठी थी...।
यादों का पिटारा - कविता वर्मा
पेटी में लिपटी रखी
अम्मा की कांजीवरम साडी
जतन से खोलते उसकी तह
यूं महसूस हुआ जैसे
बिस्तर पर पड़ी
जर्जरकाया माँ को
हल्के से छुआ हो
ठन्डे पड़े हाथ की गर्माहट को
साड़ी की तह के बीच
गाल पर महसूस किया माँ
सालों से लाकर में रखे बूंदे
आज निकाल कर लाई हूँ यूं ही
न कोई उत्सव न कोई जलसा
कितने ही आधुनिक जेवरों के बीच
कितने पुरातन
पहली बिटिया की जचकी के
कितने ही पहले
बनवाकर रख लिए थे तुमने
और बिफर पड़ी थी में
क्या माँ कोई ढंग की
डिजाइन बनवाई होती
तुम्हारा धुंआ धुंआ चेहरा
रह रह कर आईने में
बूंदों की जगह झलक जाता है माँ
तरतीब से जमी
साड़ियों की अलमारी
यूँ ही खोल कर बैठी हूँ आज
तुम्हारी दी हुई साड़ियों की
अलग तह लगाते हुए
कभी सोचा ही नहीं
बाबूजी की पेंशन
भैया की सीमित आय में
कैसे ससुराल में मेरे मान को
बनाये रखने के लिए
तिल तिल जोड़ कर
इतनी साड़ियाँ दीं तुमने
कभी तुम्हे ख़ुशी नहीं जताई
कभी न माना आभार
आज साड़ियों का ढेर
अपने दंभ से बहुत बहुत
बड़ा नज़र आता है माँ
वो नानी की सिंगार पेटी
दादी के पानदान का वो सरौता
संजो कर रखे थे
जो तुमने अपने यादों के पिटारे में
साधिकार ले आयी थी जिन्हें
आज उन सब चीजों में
तुम्हारे न होने के बाद भी
तुम्हारा ममतामयी निरीह चेहरा
नज़र आता है माँ .
वह तुम्हारा है... भावना सक्सेना
क्यों चाहते हो
एक अच्छे इंसान की,
सुघड़ आदतें,
व्यवस्थित जीवन।
ताकि .....
उसे मेडल, ट्रॉफी की तरह
आगे कर सको
और कह सको-
देखो मेरा है
और उसे मिली
प्रशंसा को
अपनी टोपी में लगा सको
एक खूबसूरत पंख की तरह।
जीने दो उसे
उसका जीवन
अल्हड़,
बेपरवाह
संकोचहीन।
उसके अपने अनुभव
ढाल देंगे उसे
और तप कर बन जाएगा कुंदन।
जीने दो उसे
क्योंकि.....
वह तुम्हारा है,
बस तुम्हारा।
मातृ दिवस विशेषांक
-नरेन्द्र व्यास
माँ ने पूछा, ‘‘ कौन ज्यादा सुन्दर है, मैं या चंद्रमा?
सबसे अच्छा उत्तर बच्चे ने दियाः ‘‘ मुझे नहीं पता पर जब मैं तुम्हें देखता हूँ तो चंद्रमा को भूल जाता हूँ और जब चाँद को देखता हूँ तो तुम याद आती हो!
***
आज शादी के पूरे 21 साल बाद मेरी पत्नी चाहती है कि मैं किसी और महिला को डिनर पर ले जाउँ और पिक्चर भी दिखाउँ। उसने कहा , मैं तुम्हें प्यार करती हूँ, लेकिन मैं यह भी जानती हूँ कि वह भी तुम्हें बहुत प्यार करती है और तुम्हारे साथ कुछ समय गुजारना चाहती है। वो महिला जिसके साथ मेरी पत्नी मुझे भेजना चाहती है, मेरी माँ है। जो पिछले 19 सालों से विधवा है और अपने काम और बच्चों की जिम्मेदारियों के कारण मैं उससे अवसर विषेष पर ही मिल पाता हूँ।
जिस रात मैंने उसे डिनर पर जाने और फिल्म देखने जाने का कहा तो वह बोली, क्या हो गया है तुम्हें? तुम ठीक तो हो न? कैसी बहकी - बहकी बातें कर रहे हो। क्योंकि मेरी माँ का मानना है कि देर रात का बुलावा, बुरी खबर का संकेत है।
मैंने कहा, तुम्हारे साथ कुछ समय गुजारना सुखद होगा। केवल हम दोनों। उसने एक पल सोचा और कहा, मुझे बहुत अच्छा लगेगा।
उस शुक्रवार जब काम से फ्री होकर मैं उसे पिक करने जा रहा था तो थोड़ा नरवस था। जब मैं उनके घर पहुँचा तो नोटिस किया कि वह भी हमारी इस डेटिंग को लेकर कुछ नरवस सी हैं। उसने अपने बालों को कर्ल किया हुआ था और वही ड्रेस पहना था जो उसने अपनी लास्ट मेरिज एनीवर्सरी पर पहना था। मुझे देखकर वह कुछ इस तरह मुस्कुराई जैसे कोई परी हो। उसने कार के अंदर आते हुए कहा, मैंने अपने मित्रों से बताया कि मैं अपने बेटे के साथ बाहर जा रही हूँ , तो वे बहुत खुष हुए। ‘वे हमारी बैठक के बारे में सुनने के लिए इंतजार नहीं कर सकते।‘
हम एक रेस्तरां, जो बहुत सुरुचिपूर्ण और आरामदेह नहीं था, में गए। वह मेरा हाथ इस प्रकार थामे थी जैसे विष्व की प्रथम महिला हो।
हम बैठ गए, मैंने मीनू पढ़ना शुरु किया। वह बड़े अक्षर ही पढ़ पाती थी। पढ़ते हुए देखा कि उसके होठों पर अपने बीते समय को याद करने वाली मुस्कुराहट थी।
मैं भी इसी प्रकार आर्डर करने के लिए मैनू पढ़ा करती थी जब आप छोटे थे, उसने कहा। अब यह समय है कि आप आराम करो और मैं उस इस जिम्मेदारी को निभाउँ, मैंने जवाब दिया। खाना खाते समय कुछ विषेष बातें नहीं हुईं। हम दोनों ने अपने वर्तमान क्रियाकलापों की चर्चा की। बातें करते-करते समय का पता ही नहीं चला और पिक्चर छूट गई। जब उसका घर आ गया, उसने उतरते हुए कहा, मैं तुम्हारे साथ दोबारा डेट पर जा सकती हूँ, अगर तुम मुझे आमंत्रित करने की इजाजत दो। मैंने हाँ कर दी। जब मैं घर पहुँचा, मेरी पत्नी ने पूछा, तुम्हारी डिनर डेट कैसी रही? मैंने उत्तर दिया, बहुत बढ़िया! जैसा मैंने सोचा था, उससे भी कहीं ज्यादा अच्छी।
कुछ दिन बाद हार्ट अटैक से माँ की मृत्यु हो गई। यह सब इतना अचानक हुआ कि हम उसके लिए कुछ भी नहीं कर पाए। उसके कुछ ही दिनों बाद मुझे एक लिफाफा मिला जिसमें उसी रेस्टारेन्ट की रसीद थी जहाँ मैंने उस रात उसके साथ डिनर किया था। लिखा था, ‘‘मैंने इस बिल का भुगतान अग्रिम में कर दिया है मुझे यकीन नहीं है कि मैं वहाँ हो सकती लेकिन, फिर भी, मैंने दो प्लेटों के लिए भुगतान किया है-आप के लिए और आपकी पत्नी के लिए। तुम कभी नहीं समझ सकोगे कि वह रात मेरे लिए कितनी महत्वपूर्ण थी।
‘बेटा मैं तुम्हें प्यार करती हूँ,‘
उसी क्षण मुझे समझ आया कि अपने परिवार के सदस्यों को दिए गए समय का क्या महत्व है और उनके यह कहने का अर्थ भी कि ‘मैं तुम्हें प्यार करती हूँ।‘ जीवन में अपने परिवार से जरुरी कुछ भी नहीं है। उन्हें उतना समय जरूर दें जितना उनका हक है। हो सकता है जब तुम्हारे पास उन्हें देने के जिए समय हो तब वे तुम्हारे साथ न हों।
कोई कहता है, प्रसव होने के बाद छः सप्ताह लगते हैं, माँ को सामान्य होने में। कहने वाले को नहीं पता कि जब कोई माँ बन जाता है तो सामान्य होना उसके लिए इतिहास की बातें हो जाती है।
कोई कहता है माँ अपने दूसरे बच्चों से उतना प्यार नहीं करती जितना अपने पहले या बड़े बच्चे से। हो सकता है उसके दो या दो से अधिक बच्चे नहीं है।
किसी ने कहा, एक माँ होने का सबसे मुश्किल हिस्सा प्रसव पूर्व पीड़ा और प्रसव है।
किसी ने कभी नहीं देखा जब उसका बच्चा बाल मंदिर जाते समय पहले दिन वह बस पर चढ़ाती है या एक सेना के बूट शिविर का नेतृत्व करने हवाई जहाज पर भेजते समय, उसे कैसा लगता है।
कुछ कहते हैं कि माँ निष्चिंत हो जाती है जब उसके बच्चे की शादी हो जाती है। कहने वाला यह नहीं जानता कि उसी दिन से माँ की साँसों धड़कनों के साथ उसके दामाद या बहू की एक धड़कन और जुड़ जाती है। कोई यह कह देता है कि माँ की जिम्मेदारियाँ खत्म हो जाती हैं जिस दिन उसका सबसे छोटा बच्चा घर से बाहर चला जाता है। शायद कहने वाले के नाती-पोते नहीं होंगे।
कुछ माताएं कह देती हैं कि तुम्हारी माँ जानती हैं कि तुम उससे प्यार करते हो तो कहने कि क्या जरूरत है। शायद वो खुद सही मायने में एक माँ नहीं हैं।
इस विचार को उस महान् माँ तक और हर उस बंदे तक पहुँचा दो जिसकी माँ है।
यह है एक माँ होने के बारे में। आपके जीवन में जो भी लोग हैं उनकी प्रशंसा करना, उन्हें समय देना चाहिए जब आप उनके साथ हैं ... यह बात मायने नहीं रखती कि व्यक्ति कौन है!
- सुरेश ओबेराय
अम्मा की कांजीवरम साडी
जतन से खोलते उसकी तह
यूं महसूस हुआ जैसे
बिस्तर पर पड़ी
जर्जरकाया माँ को
हल्के से छुआ हो
ठन्डे पड़े हाथ की गर्माहट को
साड़ी की तह के बीच
गाल पर महसूस किया माँ
सालों से लाकर में रखे बूंदे
आज निकाल कर लाई हूँ यूं ही
न कोई उत्सव न कोई जलसा
कितने ही आधुनिक जेवरों के बीच
कितने पुरातन
पहली बिटिया की जचकी के
कितने ही पहले
बनवाकर रख लिए थे तुमने
और बिफर पड़ी थी में
क्या माँ कोई ढंग की
डिजाइन बनवाई होती
तुम्हारा धुंआ धुंआ चेहरा
रह रह कर आईने में
बूंदों की जगह झलक जाता है माँ
तरतीब से जमी
साड़ियों की अलमारी
यूँ ही खोल कर बैठी हूँ आज
तुम्हारी दी हुई साड़ियों की
अलग तह लगाते हुए
कभी सोचा ही नहीं
बाबूजी की पेंशन
भैया की सीमित आय में
कैसे ससुराल में मेरे मान को
बनाये रखने के लिए
तिल तिल जोड़ कर
इतनी साड़ियाँ दीं तुमने
कभी तुम्हे ख़ुशी नहीं जताई
कभी न माना आभार
आज साड़ियों का ढेर
अपने दंभ से बहुत बहुत
बड़ा नज़र आता है माँ
वो नानी की सिंगार पेटी
दादी के पानदान का वो सरौता
संजो कर रखे थे
जो तुमने अपने यादों के पिटारे में
साधिकार ले आयी थी जिन्हें
आज उन सब चीजों में
तुम्हारे न होने के बाद भी
तुम्हारा ममतामयी निरीह चेहरा
नज़र आता है माँ .
***
- कविता वर्मा
माता के अनेक सामान अर्थी शब्दोको सुनते ही एक छवि दिखती है जिसमे रंग भरे है वत्सल्यके ,स्नेह्के, त्यागके निष्ठाके ,अथक सेवाके,( और अनेक रंग जो मुझे याद नहीं ,आपको याद हो तो भर सकते है)
कई लोगोने कहा माँ याने पहला गुरु,
माँ याने कल्पतरु.
माँ भगवानका रूप .
कई कितनी कविताये
माके गौरव सम्मानके लिए रची गयी .
कुम्हार अपने चाकड़े पर मिट्टीके गोलेको जैसे घडता है
ठीक उसी तरह दुनियाके हर समाजने माको घड़ा ,रूप दिया.
क्युकी माकी ज़रुरत थी परिवारको पुष्ट करनेके लिए.
और माँ ये करती रहे ख़ुशी से इसलिए उसे देवी कहके पूजा करी.
अपनी संततिका जतन तो हर जीवकी मादा करती है.
किन्तु मानव माँ जैसे गुणोसे लदी नहीं होती.
मानव माँ इस गौरवकी खुशीके लिए अपनी हर क्षमताको उजागर नहीं होने देती.
ऐसे पिन्जरेमे बंद हो जाती है की उसे पंख है, उड़ान भर सकती है ये ही भूल जाती है.
इसीको नाम दिया जाता है वात्सल्य
ममता...त्याग.सहिष्णुता
जो हर माके रक्तमे बहता है
माँ बन पाना इसे सुभाग्य माना गया. माँ बननेकी प्रक्रियामे स्त्रीको जो लाड प्यार मिलता है उससे कोई भी खुश होगा.व जो स्त्री माँ न बन सके उसको इतना कोसा जाता है की किसीभी किमतपे माँ बनना चाहती है .यहाँ तक के कोई भी फल खाया, व्रत किया ऐसा जिसमे किसीके बच्चेकी
जान ही क्यों न लेनी पड़े.. किसीका बच्चा
भी चुरा ले सकती है..
कामका विभाजन, स्त्रिकी सृजनात्मकता जैसे भावुक रुपोसे शायद मोहित होके स्त्रीने ये स्वीकारा होगा.
किन्तु इसकी कीमत जो चुकाई है, चुकाती है उसका भी उसे एहसास न हो ऐसा पूरा बंदोबस्त इस समाजके बन्दोने जबरदस्त किया.
ऐसा जबरदस्त किया .. की ऐसा न कर पाना एक अभिशाप मानने लगी. यदि कोई विद्रोही इससे अलग बर्ताव करे तो.. कर ही नहीं सकती क्युकी उसके सामने और कोई विकल्प होता ही नहीं.
कभी कही पढ़ा था: परिवार सत्ता सम्बन्ध . जब पढ़ा तब तो पल्ले नहीं पड़ा था. किन्तु आज कुछ कुछ ज़लक दिख रही है इन सलाखोंकी सुहाने डोरकी .
Matru दिन पर क्या हम माँ नामकी संस्थाको थोडा आज़ाद होने देंगे?त्याग,स्नेह, सेवा निष्ठां ये बहुत अच्छे गुण है जो स्त्रिया सीखती है क्यूंकि उसके अलावा और कोई चारा नहीं होता.क्या हम ऐसा माहोल बना सकते है जिसमे स्त्री पसंद्से त्याग, स्नेह समर्पण करे.. और पुरुषभी इन अच्छे गुनोको आत्मसात करे.ताकि भविष्यमे माँ नामकी संस्थामे शोषण की बू न आये .
हो सकता है मैंने जो कहना चाह है ये केवल मेरी ही सोच हो.. यदि आप पसंद नहीं करते तो ऐसा कहने के लिए आप आज़ाद हो.
किन्तु मई जानती हु ये मेरी अकेलेकी सोच नहीं है. बहुतोने ये प्रश्न खड़े किया है. बहुत अभी असम्नाज्समे है की इन्हें प्रकट करे या न करे..
जो भी हो मेरे मनमे इन प्रश्नोने तुमुल घमासान तूफान मचाया है..
क्या सचमे ऐसा सम्मान माको मिलता है?
४० से ६० के बिचकी माँ को देखिये
क्या उसका रूप है रंग है,कही भी आत्म सम्मानकी झलक भी महसूस होती है?
जिसने अपने अस्तित्व तक को मिटा दिया वो परिवार उसे कैसे देखता है?
जब बच्चोंको ज़रुरत न रही माकी बात ख़तम.
पुराना बाजा जो मधुर संगीत बजाता था अब नए साधनोमे उसका कोई नाम न काम.
उसी तरह..
उसके उपरकी उम्रकी माँ तो बेचारी बनके सिकुड्के अपनी जिन्दगीको कोसती हुई..
***
- मीना त्रिवेदी
"माँ"
एक शब्द
सिमटे हैं जिसमें सातों समंदर
देखा है
बड़ी सी बिंदी सजाये
सीधे पल्लू की साड़ी में
चौंधिया जाती थीं आँखें
वो खुशी जब पापा लाते थे
कोई उपहार
तो चुपके से दर्पण के सामने
हौले - हाले मुस्कराते हुए
जाने क्या बतियाते हुए
कुछ - कुछ कहती थी माँ
धीरे=धीरे अपने आप से
कितनी सुंदर
दिखती थी ना "माँ" |
अथक मुस्कराहट अधरों पर
और आँखों में वात्सल्य
जैसे
भोर ने सीखे थे
किरणों के गान यहीं से
पंछी लेते थे
हर सुबह उड़ान यहीं से |
लेकिन आज पाखी नहीं आते
गहरा गया सूनापन
खो गया नभ का इंद्र-धनुष
बालों पर बिछा दी धूप ने सफेद चादर
खोई - खोई सी
दिखती है जाने क्या ढूँढती सी |
शायद वो जो चाहा
हो ना पाया
जो पाया वो चाहा ना था
बंद हैं अलमीरा में
वो विगत वर्ष जिनमें
कहीं वो भी पडी हैं बंद
काश ! दे पाती मैं उसे वो आकाश
जिसमें पाखी बन उड़ती "माँ"|
***
-गीता पंडित
माँ....तुम कहाँ चली गयीं....
मैंने देश क्या छोड़ा तुमने ..देह छोड़ दी....
मुझे पता ही नहीं चला....तुमने केन्सर का बहाना बना लिया....
इतनी नाराज़ तो नहीं थी तुम...
तुम थीं तो डर नहीं लगता था....
छूप जाने को तुमहरा आँचल था....
हर ज़रुरत को तुम पहले ही कैसे जान जाती थीं...
पिता ने डांटा.. तो तुमने दुलारा...
दुनिया से दु:खी हुआ.. तो तुम बनी सहारा...
तुम अपने हाथों से छूकर.. हौसला कैसे जगा देती थीं..
हर मुश्किल से लड़ गया मैं...
हर मंजिल पे चढ़ गया मैं....
अकेला होने नहीं दिया...
हौसला खोने नहीं दिया...
कभी लगा ही नहीं....
कुछ नामुमकिन भी होगा...
" हो जायेगा" ..
तुमहरा यह कह देना सफलता की सीढियां बन गया...
मैं चलता गया ..... वक़्त बदलता गया ...
आज तुम नहीं हो.....
मैं दूंढ़ रहा हूँ तुम्हें...
किससे कहूँ..... जो सिर्फ तुमसे ही कह सकता हूँ...
हालाँकि बेटियाँ माँ लगने लगी हैं...
पर उनकी आँखों का भीगना देख नहीं पाऊंगा...
बस ऐसे मैं तुम्हे दूंढ़ रहा हूँ...
..तुम नहीं हो....
कई बार अचानक जग जाता हूँ....
तुम्हारा हाथ अपने सर पे महसूस कर पता हूँ...
तुम्हरी खुशबू से तर हो जाता हूँ ....
तब लगता है...
तुम कहीं गयी नहीं हो ...
तुम मेरे आसपास ही हो...
यहीं कहीं हो...
यहीं कहीं हो...!!
माँ .........!
***
-अश्विनी त्यागी
माँ थी तब उसे संभाल नहीं पाया था मैं | संयोग की बात कहूं या अपनी असमर्थता? माँ की इच्छा थी कि मरने से पहले एक बार जन्मभूमि वाराणसी में काशी विश्वनाथ के दर्शन करूं | मगर कुछ न हो सका...
माँ ने बचपन में सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन किया था, मगर ससुराल में आते ही, मिट्टी काठ, खेत, गाय-भेंस और गोबर | बहुत मज़दूरी की थी और यहाँ देसी गुजराती बोली और रिवाज | कहाँ जाएं बेचारी... करती सबकुछ काम और खुद को समर्पित करके ढाल दिया था खुद को गुजराती बहू के रूप में.
माँ थी वो मेरी...! अपनी जेठानी के ताने पर बीस साल तक पाँव में जूते नहीं पहने थे | आखिर जब पिताजी नौकरी में लगे | मन्नत पूरी करने के लिए हमारे गुजरात-राजस्थान सरहद पर आबू से नजदीक अम्बाजी माता के दर्शन करने जाना था | पैसे नहीं थे ज्यादा | हम तीन भाई, एक बहन हैं | सभी को घर छोड़कर मैं, बाबूजी और माँ अम्बाजी गए थे | ढंग से पहनने के न कपडे थे और न ज्यादा पैसे | धर्मशाला में रात गुजारनी थी और ठण्ड ने भी कसौटी करनी थी, माँ ने अपनी साड़ी के पल्लू को ओढाया था मुझे | बाबूजी सारी रात जागते हुए थीठुराते रहे थे | मेरी नींद भी कहाँ थी?
आज भी वो दृश्य आँखों के सामने तैरता है.... घर की खिड़की से दूर तक जाती हुई सड़क को देखता हूँ तो नज़र आता हैं एक छोटा सा परिवार.... मैं अपनी साईकिल खींचता हूँ पवन के जोर के सामने | पीछे बैठी है मेरी बीवी और उसके हाथ में है एक छोटी सी बेटी... गाथा ! फिर तो विश्वा पैदा हुई और कार की सैर उनके नसीब हुई | आज सबकुछ हैं मेरे पास | याद आता हैं कि माँ की अंतिम ईच्छा वाराणसी जाने की थी.... मगर जब कुछ नहीं था तो माँ-बाबूजी थे और आज सबकुछ हैं तो माँ और बाबूजी ही नहीं... !
***
-पंकज त्रिवेदी
सोने की मछली और भगवान बुद्ध-- स्वामी आनंद प्रसाद 'मनसा'
बात उस समय की है, जब भगवान बुद्ध श्रावस्ती में विहरते थे। श्रावस्ती नगर के पास केवट गांव के कुछ मल्लाहों ने अचरवती नदी में जाल फेंककर कर एक स्वर्ण-वर्ण की अद्भुत मछली को पकड़ा। कहानी कहती है अचरवती नदी.....जो चिर नहीं है......अचिर यानि क्षणभंगुर है।
ऐसा ही तो जीवन है, प्रत्येक प्राणी क्षण-क्षण बदलते प्रवाह के संग-साथ जाता है और पकडना चाहता है। जाल फेंक कर बैठे है, अचरवती के किनारे, कोई पद का, यश का, धन का, नाम का......की मछली को पकड़-पकड़ को कहां पकड़ पाता है। कास हम समझ जाते ये जीवन क्षण भंगुर है।
सोने की मछली तो मल्लाहों ने पकड़ ली, जिसका शरीर तो सोने का था, परन्तु उसके मुख से भयंकर दुर्गंध आ रही थी।
यहां भी शरीर तो लाखों लोग सोने जैसा पा लेते है। पर अन्दर तो सब सड़ रहा है। देखो किसी सुंदर स्त्री को पड़ो उसके प्रेम में, जैसे-जैसे तुम पास आते हो शरीर तो स्वर्ण तो सोने का पा लिया है। पर अंदर तो सब सड़ गल रहा है। अहंकार, व्यमनस्य, क्रोध....भरा है, प्रेम की सुवास कहां है वहां। उस से सब ढका है। अंदर कुड़ा कर्कट भरा है।
यहां सुन्दरत्म देह तो मिल सकती है, लेकिन अंदर तो कुरूपता ही होगी। कहां पाओगे सुन्दर आत्मा, किसी मीरा, सहजो, किसी लल्ला, में ही स्वर्ण आत्मा के दर्शन हो सकते है। वहीं वास पाओगे सुन्दर देह और सुन्दर आत्मा। इससे पहले कहां तृप्ति हे।
लेकिन ये सब दूसरों के लिए नहीं है। ये सब तुम्हारे लिए ही है, तुम्हारे पास सुन्दर शरीर तो है पर कहां है सुन्दर आत्मा। तीर को फल अपनी और करके देखना। तभी तुम्हें पता चलेगा की यह है अचरवती , झांक करे देखना एक बार उसमे शायद दिख जाये हमें हमारा असली रूप। हमारे सब शिष्टाचार, सौम्यता, उपर-उपर ही लिपी पूती है। उपर से हम छाप तिलक लगा, दाढ़ी बढ़ा बन बैठेंगे संत। हजारों को छल सकेंगे। पर अंदर तो वहीं गंदगी भरी है। वहीं रोग सड़ रहा है। उपर ही उपर सज्जनता है अन्दर अंदर अभी भी जंगली जानवर तैयार खड़ा है। जरा सा खूरोचा नहीं निकल कर बहार खड़ा हो जाता है। आप इसे अपने ही जीवन अनुभव से देखे तोले, तीर अपनी तरफ रखें तभी समझ पायेंगे। दूसरों में देखना आसान है। अपनी तरफ बहुत मुश्किल है।
मल्लाहों की समझ में बात आई नहीं, ऐसी मछली तो पहले न देखी थी न सुनी थी। जब बात सर से उपर चली गई तो वह राज के पास गये। भला राजा को भी कहां समझ में आनी थी। वह भी सीमित संकुचित बुद्धि का होगा हमारा प्रतिनिधित्व हमसे अलग कैसे हो सकता है। राजा उसे द्रोणी में रख कर भगवान के पास ले गए। और उसी समय मछली में अपना मुख खोला।
देखा मल्लाहों नहीं समझे,समझ आती है बात कहां सोना देखा है। कहां कंचन काया जानी, जीवन बस किसी तरह रेग रहा है। पर राजा तो सोने में जीता, सोने की काया को भोगता, सोने के ही वर्तनों में खाता है। उसकी भी समझ में नहीं आई। मल्लाहों को क्षमा किया जा सकता हे। उनमें कोई विरला ही कबीर, नानक, रवि दास...ही सोने की मछली को समझ सकते है। पर गरीबी में कहां ध्यान...वहां तो मांग ही शुरू नहीं हुई है सही तरीके से। लेकिन धन वैभव हो तो तुम उसके पास देख सकते है। कि ये सब पा कर भी कुछ नहीं मिला अंदर तो अभी खाली का खाली ही है।
राज को भी समझ में नहीं आया, फिर क्या, समझें कथा क्या कहती है। आखिर हम सब को जाना होगा एक दिन बुद्ध के पास वहीं निवारण है वहीं निर्वाण है। किसी जाग्रत पुरूष के संग बैठना हो उसकी छांव में । संग साथ लेना होगा उनकी तरंगों का जो तुम्हें अपने साथ उड़ा ले चले, बिन पंखों के। किसी और लोक की और, जिसकी तुम कल्पना भी न कर सको। वहीं होश ही तुम्हारी सारी उलझनों सुलझा सकता है। वहीं तुम्हारी उलझी बेल सुलझ सकती है। वहीं समाधान है, जो समाधि प्राप्त कर चुका है, वहीं कर सकता है हमारा समाधान, हमारा रूपान्तरण, बदलाव, उससे पहले कोई मार्ग नहीं।
जैसे ही मछली को भगवान के सामने लाये उसने अपना मुख खोला—क्यों खोला मछली ने अपना मुख? याद आ गई होगी, आवक रह गयी होगी, बुद्ध को देख कर चल चित्र की भी बह गई होगी अपने पीछे जीवन में। उस बुद्ध कि याद आ गई होगी जिसका संग साथ किया था पहले। अरे यह क्या? फिर वहीं सौन्दर्य, वहीं तरंगें, वहीं सुगंध, वहीं शांति…एक बार फिर। समझ में नहीं आया होगा कि ये सब क्या है। कैसे है। खुला रह गया होगा उसका मुख। कितने कम भाग्य शाली लोग होते है। जो फिर-फिर उसी वर्तुल में घूम कर बुद्धों के सामने आ जोत है। हम तो बचते है, बचना ही चाहते है। कोई न कोई बहाना कर टाल देना चाहते है। उनके आस पास जाने से भी कतरते है। उनके शब्द कानों में न पड़ जाये इस लिए बच कर दूसरे रास्ते से चल जाते है। क्या कि हम समझदार है, कोई मूढ़ नहीं जो कोई हम बहका फुसला ले। और तो मुर्ख है अज्ञानी है। पर हम तो....ओर मर जाने के बाद कितनी श्रद्धा भगती से पूजा करते है। आरती का थाल सजाते है। तिलक टिका भी लगा देते है। भोग लगो प्रसाद भी ग्रहण कर लेते है। वह आग तो चली गई अब तो उस का फोटो है छुओ उसे नहीं जलेगा तुम्हारा है। पर यहीं शायद हमारे अहंकार को तृप्ति देता है।
जीवत बुद्ध को तो देख कर तुम्हें भरोसा नहीं आता। कि कोई बुद्धत्व भी है। हमारी अकड़...समझदारी बन हमारा बचाव कितनी खूबसूरती से करती है। प्राचीन परंपरा है कि गुरु के पास कोई जाये तो उसे झुकना होगा। तभी तो तुम भर सकोगे अपनी गागर को, बहती रहे नदी तुम जीवन भर उस अकड़े खड़े रहो और कहो की यहां कोई पानी नहीं है। देखो मुझे तो मिला ही नहीं और लोग झूठ बोल रहे है। होता तो क्या मुझको नहीं मिलता। अकड़े खड़े रहो खाली लोट आओगे। इसमें नदी को कोई कसूर नहीं है। पानी तुम्हारे कंठ को कैसे छुए यही तो कला है गुरु के संग जाने की, तब हम कह सकते है, ये कोई ध्यान-वान नहीं सब मंद बुद्धि आदमी की बनाई हुई बात है। कोई समाधि नहीं होती। कोई बुद्धत्व नहीं होता। सब पागल है...
राजा ने पूछा: भंते, भगवान का ही अति सुंदर छोटा रूप है, भंते, क्यों इसका शरीर स्वर्ण का हो गया। और इसके मुख से कितनी दुर्गंध आ रही है। भगवान ने मछली को गोर से देख, चले गये उसके पूर्व जन्म में ऐक्सरे मशीन की तरह....ओर कहा यह कोई साधारण मछली नहीं है।
यह कश्यप बुद्ध के शासन काल में कपिल नाम का एक महा पंडित भिक्षु था। संन्यास धारण किया था इसने। त्रिपुटक था, ज्ञानी था, विद्यावान था। देखा आपने ज्ञान से अंहकार कटता नहीं और मजबूत हो जाता है। धन, पद, यश, नाम तो तुम्हारे कपड़ों की तरह से है। पर ज्ञान तो तुम्हारी चमड़ी की तरह है। धन छोड़ सकते हो, घर छोड़ सकेत हो बड़े मजे में। पर चमड़ी को छोडने के लिए विकट साहस की जरूरत है। वो तो कोई विरल ही कर सकता है। चमड़ी को उतरना कठिन है। इसलिए आपने देखा बोधक तोर से ज्ञान लोग अहंकारी होते है। अहंकार और ज्ञान का चोली दामन का साथ है।
ऐसा अकसर होता है, महावीर को उसके ही शिष्य मखनी गोशालक ने धोखा दिया। महा पंडित था, बड़ा ज्ञानी था...पर क्या हुआ। बुद्ध को उसके ही चचेरे भाई देवदत्त ने मारने की कोशिश की। साथ खेला था, बुद्ध से दीक्षा ले उनका संन्यासी हुआ। सुसंस्कृत था, सुसभ्य था। ज्ञानी था। ऐसा ही जीसस के साथ हुआ सब अनपढ़ थे एक पढ़ा लिखा शिष्य था जूदास, तीस रूपये में बेच दिया अपने ही गुरू को। ऐसा अक्सर क्यों होता है क्यों ये सब बार-बार दोहराया जाता है। ओशो को उनकी ही शिष्य शीला ने जहर देने की कोशिश की और्गन का पूरा का पूरा आश्रम खत्म करा दिया किस वजह से , वो खुद गुरु होना चाहती थी। पढ़ी लिखी थी, जब उसने पहली बार ओशो को देखा तो बस वही की होकर रह गई। आई थी अपने पिता के संग नहीं गई घर। ओशो ने एक बार प्रवचन में उस के लिए मील के पत्थर के शब्द कहे थे, ‘’शीला तै तय किया गज्जब’’ ( रज्जब तै तय किया गजब) जब ये शब्द पढ़े तो मेरी आंखें भर आई। इतनी उच्चाई से भी कोई गीर सकता है। तो वह बच नहीं सकता। आज यूरोप की जल में सड़ रही है शील....। बौधिक पंडित सदा धोखा दे जाते है। इसने अपने गुरू को धोखा दिया। इसकी देह तो स्वर्ण की हो गई पर अंदर दुर्गंध भरी रह गई।
राजा को इस कथा पर भरोसा नहीं आया, तुमको भी नहीं आयेगा। किसे आता है, कौन मानने को तैयार है कि मृत्यु के बाद भी कुछ है। इसका क्या प्रमाण है। पर मृत्यु के बाद नहीं तो जन्म के बाद तो हम हजारों प्रमाण देखते है। एक ही माता पिता से एक ही कोख से जन्म लेने के बाद दो सन्तान एक सी नहीं होती, न बौधिक तोर से शारीरिक तोर से ये भिन्नता आती कहां से कुछ तो ऐसा है जो यहां का नहीं है, फिर वह यहां रह ही कैसे सकता है। ..
राजा ने कहां आप इस मछली के मुख से कहलाये तो मानें। सोचना बुद्ध की बात पर यकीन नहीं आया। भरोसा नहीं आया। पर मछली अगर बोल दे तो यकीन आ जाए, ऐसा है मनुष्य फिर गिरेगा अचरवती में, यही है वेदन, पीड़ा। देखी आदमी की मूढ़ता ऐसी होती है। क्षुद्र बातों पर बहुत भरोसा करता है। विराट छूटता चला जाता है। मछली कहे तो मानें।
भगवान हंसे, शायद करूणा के कारण, चला एक और मछली की रहा पर। और उन्होंने राजा को देखा। मछली की आंखों में झांक कर कहां, याद करो भूले को याद करों तुम्हीं हो कपिल, झांक कर देखो, तुम्हीं हो कपिल?
मछली बोली: हां, भंते, मैं ही कपिल हूं।
ये कथाएं मनोविज्ञान का संकेत देती है। ये बोध कथा ये है, जैसे आपने देखा ईसप की कहानियां, या पंच तंत्र की कहानियां, जिसमें शेर बोलता है, खरगोश बोलता है। जानवर बोर रहे है, पर बच्चें कितने आनंद से पढ रहे है। समझ रहे है, बुद्धों के सामने तो हमारा मानसिक विकास बच्चों से भी कम है। ये कथाएं हमारे जीवन दर्शन की कथा कहती है। हमारी चेतना के तलों को भी उजागर कर रही है। हमारी समझ को हमारे ही सामने पार दर्श कर रही है। कहां है हमें होश बुद्ध के होश के सामने, तो अभी हम गहरी तन्द्रा में सोये है। छोटे बच्चों से भी छोटे है।
हों, भंते, मछली ने कहां: ‘’मैं ही कपिल हूं। और उसकी आंखों से पश्चाताप के आंसू भर आये। गहने सम्मोहन में केंद्रित हो गई, पश्चाताप से भर जार-जार आंसू बह चलें। आगे कोई शब्द नहीं निकला। खो गई उस क्षण में जब अपने गुरू को धोखा दिया था। आंखे खुली की खुल रह गई, मुहँ भी यथा वत खुला हा, और प्राण निकल गई। मर गई मछली पल भर में।
पर एक चमत्कार हुआ, उसका मुख तो पहले की तरह ही खुला था पर अब उसमें दुर्गंध नहीं थी। जैसे ही पुराने वाली दुर्गंध हवा के साथ विलीन होने लगी। अपूर्व सुगंध से भर गई वह जगह। एक मधुर सुवास चारों तरफ फेल गई।
राजा चुका मछली पा गई। उलटी दुनियां है। राजा अभी भी बैठा देख रहा है। सोच रहा होगा जरूर बुद्ध ने कुछ किया है। कोई चमत्कार कोई वेन्ट्रीलोकिस्ट जानते होंगे, राजा की समझ में कुछ नहीं आया। राजा होने भर से क्या समझ विकसित हो जाती है। वेन्ट्रीलोकिस्ट मूर्ति को बुलावा दे, गड्ढे को बुलवा दे, मछली को बुलवा दे। उसके होठ नहीं हिलते पर बोलता वही है।
गंध कुटी के चारों तरफ एक सुवास फेल गई। एक गहन शांति छा गई। समाधि के मेघों से सीतलता बरसाने लगी। एक ही क्षण में क्रान्ति घटित हो गई। एक सन्नाटा, विषमय, और प्रसाद का चारों और फेल गया। अवाक हर गये लोग, संविग्न, विषमय विमुग्ध, जड़ वत खड़े रह गये लोग। भाव विभूत हो गये लोग।
जीते जी दुर्गंध आ रही थी। मर कर तो और अधिक आनी चाहिए थी। पर नहीं कुछ अपूर्व घटा, कुछ ऐसा घटा जो घटना चाहिए। जिस की प्रत्येक भिक्षु इंतजार करता है। मछली मर गई—उसका मुख खुला रह गया, पवित्र कर गया उसे अंतस में जमे अंहकार को, उसका पश्चाताप क्षण में गला गया पत्थर को जो जन्मों से उसे खाये चला जा रहा था। बुद्ध के सान्निध्य में मोम बन कर बह गया सब। परम भाग्य शाली थी। गल गया पिघल गया उसका अन्तस आंसू बन कर।
किसी दूसरे बुद्ध को धोखा दिया और किसी बुद्ध के समक्ष पश्चाताप किया समय की दुरी है, पर बुद्धत्व का स्वाद वहीं है। अहंकार लेकर मरी थी किसी बुद्ध के संग और अहंकार गर्ल कर मर गई किसी दूसरे बुद्ध के सामने। क्षमा मांग ली। आंसू बन गए। इससे सुन्दर क्षण मरने का कहां प्राप्त होता है। सौभाग्य शाली रही। मछली, परम भाग्य शाली थी।
चारो तरफ कैसा सन्नाटा छा गया। सारे भिक्षु इक्कट्ठे हो गये। मछली को देखने के लिए। जो दुर थे वो भी भागे, कि ये दुर्गंध कैसे उठी, ये सब उन लोगो ने देख, मछली को बोलते, मरते, फिर महाराज को भी देखा। फिर बुद्ध के अद्भुत वचन सुने, जैत वन जो पहले दुर्गंध से भर गया था अचानक अपूर्व सुगंध से भरने लगा। भिक्षु उस सुगंध से परिचित थे। उन्हें भली भाति ज्ञात थ जब वो गंध कुटी के पास से गुजरते थे तो वहीं गंध उनके नासापुट में भर जाती थी। बुद्धत्व की गंध थी। पुरी प्रकृति में पेड़ पर उसके फूल खिलते है तो अपनी-अपनी गंध बिखरते है। तो जब मनुष्य का फूल खिलेगा तो उसकी अपनी कोई गंध नहीं होगा। हम उस गंध को नहीं जान सकते जब तक हम अंदर गंदगी से भरे है। ध्यान हमारे, तन मन की स्वछता का नाम है।
मछली उपलब्ध होकर मरी, एक क्षण में क्रांति घट गई। क्रांति जब घटती है। क्षण में ही घटती है। ये हमारे बोध की बात है त्वरा की बात है।
धम्म पद्य