कल रात एक सपना देखा -अरुण चन्द्र रॉय
परिचय : पेशे से कॉपीरायटर तथा विज्ञापन व ब्रांड सलाहकार. दिल्ली और एन सी आर की कई विज्ञापन एजेंसियों के लिए और कई नामी गिरामी ब्रांडो के साथ काम करने के बाद स्वयं की विज्ञापन एजेंसी तथा डिजाईन स्टूडियो का सञ्चालन. अपने देश, समाज, अपने लोगों से सरोकार को बनाये रखने के लिए कविता को माध्यम बनाया है.
कल रात एक सपना देखा
प्रिये
बहुत दिनों बाद
कल रात मुझे आयी नींद
और नींद में देखा सपना
सपना भी अजीब था
सपने में देखी नदी
नदी पर देखा बाँध
देखा बहते पानी को ठहरा
नदी की प्रकृति के बिल्कुल विपरीत
मैं तो डर गया था
रुकी नदी को देख कर
सपने में देखा कई लोग
हँसते, हंस कर लोट-पोत होते लोग
रुकी हुई नदी के तट पर जश्न मानते लोग
नदी को रुके देख खुश हो रहे थे लोग
थोक रहे थे एक दूसरे की पीठ
जीत का जश्न मन रहे थे लोग
प्रिये
रुकी नदी पर हँसते लोगों को देख कर
भयावह लग रहे थे लोग
सपने में देखा साप
काला और मोटा साप
रुकी नदी के ताल में पलता यह साप
हँसते हुए लोगों ने पाल रखा है यह साप
मैं तो डर गया था
मोटे और काले साप को देख कर
प्रिये
मैं तोड़ रहा था यह बाँध
खोल रहा था नदी का प्रवाह
मारना चाहता था काले और मोटे साप को
ताकि
नदी रुके नहीं
नदी बहे , नदी हँसे
नदी हँसे ए़क पूर्ण और उन्मुक्त हंसी
और लहरा कर लिपट जाये मुझ से
प्रिये
कल रात सपने में हंसी थी नदी
मुझसे लिपट कर ए़क उन्मुक्त हंसी
और नदी बोली
कोई पूछे तो कहना
रुकना नदी की प्रकृति नही.
तीन कवितायें - डॉ. सुधा ओम ढींगरा (यू. एस. ए )
(१) पतंग
परदेस के आकाश पर
देसी मांजे से सनी
आकाँक्षाओं से सजी
ऊँची उड़ती मेरी पतंग
दो संस्कृतियों के टकराव में
कई बार कटते -कटते बची
शायद देसी मांजे में दम था
जो टकरा कर भी कट नहीं पाई
और उड़ रही है .....
विदेश के ऊँचे- खुले आकाश पर ....
बेझिझक, बेखौफ ....
(२) प्रतीक्षा
पुस्तकों से लदी- भरी
दुकान में
ग्राहकों को देख कर
कोने में दुबकी पड़ीं
धूल से सनी
दो तीन हिन्दी की पुस्तकें
कमसिन बाला सी सकुचातीं
विरहणी सी बिलखतीं
अँगुलियों के स्पर्श को तरसतीं
पाठक प्रेमी के हाथों में
जाने की लालसा में
प्रतीक्षा रत हैं
पर अंग्रेज़ी दादा का वर्चस्व
प्रेमियों को
उन तक पहुँचने नहीं देता......
(३) सच कहूँ
सच कहूँ,
चाँद- तारों की बातें
अब नहीं सुहाती .....
वह दृश्य अदृश्य नहीं हो रहा
उसकी चीखें कानों में गूंजती हैं रहती |
उसके सामने पति की लाश पड़ी थी,
वह बच्चों को सीने से लगाए
बिलख रही थी ....
पति आत्महत्या कर
बेकारी, मायूसी, निराशा से छूट गया था |
पीछे रह गई थी वह,
आर्थिक मंदी की मार सहने,
घर और कारों की नीलामी देखने |
अकेले ही बच्चों को पालने और
पति की मौत की शर्मिंदगी झेलने |
बार -बार चिल्लाई थी वह,
कायर नहीं थे तुम
फिर क्या हल निकाला,
तंगी और मंदी का तुमने |
आँखों में सपनों का सागर समेटे,
अमेरिका वे आए थे |
सपनों ने ही लूट लिया उन्हें
छोड़ मंझधार में चले गए |
सुख -दुःख में साथ निभाने की
सात फेरे ले कसमें खाई थीं |
सुख में साथ रहा और
दुःख में नैया छोड़ गया वह |
कई भत्ते देकर
अमरीकी सरकार
पार उतार देगी नौका उनकी |
पर पीड़ा,
वेदना
तन्हाई
दर्द
उसे अकेले ही सहना है
सच कहूँ,
प्रकृति की बातें
फूलों की खुशबू अब नहीं भरमाती......
डॉ. सुधा ओम ढींगरा (यू. एस. ए )
बिस्तर नहीं लगते - भावना सक्सेना
बरसों बीत गए
चाँदनी में नहाए हुए
अब तो छत पर
बिस्तर नहीं लगते ।
रिमोट, प्लेस्टेशन...
हाथ हुए जबसे
दादा की कहानियाँ
भटक गईं रस्ते।
साँझ को मिलता नहीं
कोई चौबारों पर
आप ही आप
कट गए रस्ते।
बैठे हैं चुपचाप एयरकंडिशनर में
भूल गए गर्मी की मस्ती
और खेल में काटे
दिन हँसते हँसते।
वो गिट्टियाँ....
अक्कड़-बक्कड़
साँप-सीढ़ी, कैरम,
कँचों के मासूम से खेल।
बेकार कपड़ों से बनी गुड़ियाँ
मरी परंपराओं की तरह
बस मिलती हैं
म्यूजियम में।
दादी भी हाइटैक......
ला देती हैं बार्बी,
दादा के खिलौने
रिमोट से चलते।
हाल दिल के
दिलों में रहते हैं
औपचारिकताओं के हैं
नाते-रिश्ते।
आधी रात तक
बतियाता नहीं कोई
क्योंकि छत पर तो
अब बिस्तर नहीं लगते।
बासंती हवाएं - पाई चुई बी
मैं तुम्हें अब भी बहुत चाहता हूँ ....! - पंकज त्रिवेदी
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारी उन आँखों को
जो तरसती थी मुझे देखने के लिए
और फैलती रहती थी दूर दूर तक से आती हुई
पगदंडी पर...
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारे कानों को
जो उस पगदंडी से आते हुए मेरे कदमों की
आहट सुनकर खड़े हो जाते थे..........
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारे उन हाथों को, जिस पर
चूडियाँ आपस में टकराकर भी खनकती हुई
छेड़ती हो प्यार के मधुर संगीत को...
जिस पर हम दोनों कभी गाते थे प्यार के तराने......
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारे मन को
जो हमेशा सोचता रहता था मेरी खुशियों के लिए
आसपास के लोगों के लिए, दुखियों के लिए
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारे उस धड़कते हुए ह्रदय को
जो हरपल खुद को छोड़कर भी धड़कता था मेरे लिए
परिवार और बच्चों के लिए.....
मैं
देखना चाहता हूँ उन साँसों को
जो दौड़ी आती हैं अंदर-बाहर
जैसे तुम दौड़ी आती थी मेरे घर आने के
इन्तजार में बावरी होकर.....
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारे पैरों को
जो उम्र को भी थकाते हुए दौड़ते रहते थे
मेरी हर आवाज़ पर.......
मैं
तुम्हें देखना चाहता हूँ तुम्हें
जिसने कुछ न कहकर भी सबकुछ किया था
खुद के सपनों को दफ़न करते हुए समर्पित करती थी
अपने अरमानों को.......
मैं
तुम्हें देखना चाहता हूँ
ईसी घर में, खानाती चूड़ियों और पायल के साथ
उस मन की सोच और धड़कते दिल के साथ
उन खड़े कानों और फ़ैली हुई आँखों के साथ.....
क्योंकि-
मैं जनता हूँ, तुम अब भी चाहती हो मुझे
मेरी प्रत्येक मर्दाना हरकतों की मर्यादाओं के साथ
मगर मैं कुछ नहीं कर सकता दूर से तुम्हें चाहकर भी
मर्द हूँ मैं, तुम औरत...
इतना जरूर कहूंगा कि-
मैं तुम्हें अब भी बहुत चाहता हूँ ....!
मैं एक कवि हूँ : अल्विन नरिन * भावानुवाद : मीना त्रिवेदी
अपने शब्दोंसे मैंने
सौन्दर्य की छवि बनाई है
क्या तुमने इसे देखा है?
मेरे शब्दोने संगीत के सूरों की लड़ी सजाई हैं
क्या तुमने इन्हें सुना है?
मेरे शब्दोंसे मै तुम्हारे दिलको छूता हूँ
क्या तुमने महसूस किया?
मै एक कवि हूँ
मेरे शब्द गुलाब की सुगन्धित सुन्दरता सजाते हैं
क्या तुमने इन्हें सूंघा है?
मेरे शब्द ग़म के आंसू बहाते है
क्या तुमने इसने चखा है ?
मै एक कवि हूँ
मै गम की कहानियां कहता हूँ
मै शब्दों से सुन्दरता के गीत सजाता हूँ,
मै सच्ची खुशीको शब्दो में ढालता हूँ
मेरे शब्द अन्याय के आक्रोश को आवाज़ देते है
मै एक कवि हूँ
तुम मेरी भावनाओं पे हंसकर
मेरे दिल को कैसे झुटला सकते हो ?
इतनी कठोरता से
तुम मेरे दिल की उमंगो की
हँसी कैसे उड़ाओगे ?
मैंने तो मेरे हृदय को तुम्हारे सामने खोला
संवेदन को तुम्हारे तक पहुँचाया
तुम कैसे इसे टीकाओं से चोट पहुँचाओगे
तुम कर लो अपना हिस्सा मै करू अपना
क्यूंकि मै कवि हूँ ....
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(त्रिनिदाद-पोर्ट ऑफ़ स्पेन -टोबागो)
वासवदत्ता और भिक्षु उपगुप्त : स्वामी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’
वासव दत्ता एक नगर वधू थी यानि सारे नगर की वधू, नगर-नटी—सारे शहर में उसके यौवन का जादू छाया था। जो सुंदरतम लड़कियां होती थी, उसे नगर-वधू बना दिया जाता था, ताकि लोगों में संघर्ष न हो, कलह न हो, झगड़ा ना हो। जो सुंदरतम है उसके लिए बहुत प्रतियोगिता मचेगी, झगड़ा होगा, वह सब की हो, एक की न हो। यह वासवदत्ता उस समय कि सुंदरतम युवती थी।
वासवदत्ता अभिसार को निकली है अपने रथ पर सवार होकर, फूलों से सजी। वह पास से गुजरते बौद्ध भिक्षु उपगुप्त को देख कर ठिठक गई, उसकी मदमस्त चाल, हाथ में एक भिक्षा पात्र शरीर पर एक चीवर कोई आभूषण नहीं उसने तो आभूषणों से लदा सौंदर्य देखा था। सुंदर वस्त्रों में लिपटे शरीर, जो शरीर की कुरूपता को केवल छीपा सकते है। उसमें सौंदर्य नहीं भर सकते यह हमारी आंखों में एक भ्रम पैदा कर देते है एक आवरण का चशमा पहना देते हे। आज उसकी आंखों ने कोरा सौंदर्य देखा, शुद्ध और स्फटिक हीरा जो अभी तराशा नहीं गया था परन्तु उसमें से उसकी आभा छलक कर प्रसाद कि तरह बिखर रही था। उसकी आँखों को विश्वास नहीं आया। क्या ऐसा सौंदर्य भी हो सकता है, इस कुरूप संसार में, जो केवल देह के भोग में लिप्त होते हे। उनके चेहरे पर वासना का एक काला साया उसे घेरना शुरू कर देता हे।
उसने सम्राट देखे हे, द्वार पर भीख मांगते सम्राट देखे है। उसके द्वार पर भीड़ लगी रहती थी राजपुत्रों, नवयुवक, धनपति यों की सभी को उसका मिलना हो भी नहीं पाता था। बड़ी महंगी थी वासवदत्ता। लेकिन ऐसा सुंदर व्यक्ति उसने कभी नहीं देखा था। वासवदत्ता ने रथ रोक कर उसे आवाज़ दी। वह जो भिक्षु उपगुप्त था। वह शांत मुद्रा में अपना भिक्षा पात्र लिए चला जा रहा था। उसने सोचा भी नहीं की कोई नगर बधू उसे पूकारेगी। वह तो अपनी आंखों को चार फीट आगे—जैसा भगवान बुद्ध न कहा था, चार फीट से ज्यादा मत देखना—अपनी आंखों को गडाएं चुपचाप राह पर गुजर रहा था। उसके चलने में एक अपूर्व प्रसाद था। एक लय वदिता थी, एक गौरव गरिमा थी। जो एक संन्यासी के चलने में ही हो सकती है। जो एक शांत झील कि तरह स्फटिक जरूर है परंतु वो गहरा भी है। उसके तनाव चले गए, वह शांत है। अपने भीतर रमा चुपचाप चला जा रहा है।
संन्यासी अपूर्व रूप से सुंदर हो जाता है। संन्यास जैसा सौदर्य देता है, मनुष्य को और कोई चीज नहीं देती। संन्यस्त होकर तुम सुंदर न हो जाओ, तो समझना की कही भूलचूक हो रही है। और संन्यासी का कोई शृंगार नहीं है। संन्यास इतना बड़ा शृंगार है कि फिर और शृंगार की कोई जरूरत नहीं हाथी।
तुमने देखा कि संसारी भोगियों को। जवानी में शायद सुंदर होता हो। लेकिन जैसे-जैसे बुढ़ापा आने लगता है, असुंदर होने लगता है। लेकिन उससे उल्टी घटना भी घटती है। संन्यासी के जीवन में; जैसे-जैसे संन्यासी वृद्ध होने लगता है, वैसे-वैसे और सुंदर होने लगता है। क्योंकि संन्यासी का कोई वार्द्धक्य होता ही नहीं, संन्यासी कभी बूढा होता ही नहीं। महात्मा गांधी का जवानी की चित्र जितना बदसूरत दिखता है बुढ़ापे में अति सुंदर से सुंदरतम होते चले गये थे।
इसलिए तो हमने बुद्ध और महावीर, राम, कृष्ण के चित्रों में युवा दिखाया है। यह इस बात कि खबर देता है कि संन्यासी चिर-युवा है। हमने अपूर्व सौंदर्य से भरी मूर्तियां बनायी है महावीर, बुद्ध की उनमें न कोई साज है, न शृंगार है। कृष्ण की मूर्ति को तो हम सज़ा लेते है, मोरमुकुट बाँध देते है। रेशम के वस्त्र पहना देते है, धुँघरू पहना देते है। हाथ में कंगन डाल देते है, मोतियों के हार लटका देते है। बुद्ध और महावीर के पास तो वह भी नहीं है। वह तो नग्न खड़े है, एक चीवर में, लेकिन फिर भी अपूर्व सौंदर्य है। ऐसा सौंदर्य जिसको किसी सजावट की कोई जरूरत नहीं।
एक इस उपगुप्त को निकलते देखा वासवदत्ता ने। और वासवदत्ता सुंदरतम लोगो को जानती थी। सुंदरतम लोगो को भोगा है। सुंदर से सुंदर से उसकी पहचान है। सुंदरतम उसके पास आने को तड़पते है। उसके रथ को रोक लेते है, उसके आगे पलकें बिछाए खड़े रहते है। बौद्ध भिक्षु उपगुप्त को देख कर वह ठिठक गई, दीपक के प्रकाश में—राह के किनारे जो दीपस्तंभ है उसके प्रकाश में—वह सबल, स्वस्थ और तेजो दीप्त गौर वर्ण संन्यासी को देखती ही रह गई। ऐसा रूप उसने कभी देखा नहीं था। संन्यासी का सहज सौंदर्य उसके मन को डिगा देता है। अब तक लोग उसके प्रेम में पड़े थे, पहली बाद वासवदत्ता किसी के प्रेम में पड़ती है। वह संन्यासी को अपने घर आमंत्रित करती है। संन्यासी बडी बहुमूल्य बात उत्तर में कहता है।
उपगुप्त उससे कहता है—‘जिस दिन समय आ जाएगा, उस दिन मैं स्वयं ही तुम्हारे कुंज में उपस्थित हो जाऊँगा। वासवदत्ता कहती है कि भिक्षु मेरे घर आओ, बैठो रथ में, मैं तुम्हें अपने घर ले चलूगी, वहां तुम्हारी सेवा करूंगी, सब मेरे दास बनने को आतुर रहते है मेरा मन तुझ पें आ गया है। मैं खुद तेरी दासी बनने को तैयार हूं।’
भिक्षु उपगुप्त ने कहा: ‘आऊँगा, सुंदरी अवश्य आऊँगा। समय जब पूकारेगी में आ जाऊँगा, अभी तुझे मेरी नहीं मैं वासना कि जरूरत है। जब तुझे मेरी जरूरत होगी तो जरूर आऊँगा ये मेरा वादा रहा। समय कि प्रतीक्षा।’
और कहानी कहती है बहुत दिन गुजर गये, वासवदत्ता प्रतीक्षा करती रही। उसका मन अब और किसी में नहीं रमता था। वह अपूर्व रूप आंखों के सामने गुजरता रहता। एक प्रति छवि की तरह जिसे चाहा कर भी भोगना तो दुर रहा उसे छू भी नहीं सकती थी। इस संसार में अब राग-रंग उसे कुछ भी नहीं भाते थे। एक लगन सी अन्दर ही अन्दर कुरेदती रहती थी। परन्तु वह यह नहीं समझ पा रही थी कि कैसे पाया जाए उस संन्यासी को जिस मार्ग से वो संसार में प्रत्येक वस्तु को पाना जानती थी। उसी मार्ग से वे संन्यासी को ढुड़ रही थी। खुशबु को देखा नहीं जा सकता केवल उसे महसूस किया जा सकता है, उसने फूलों को कुचल कर इत्र निकालना आता था। अदृश्य सुगंध की पकड़ने की उसकी थाह नहीं थी।
बहुत लोग आते, बहुत लोगों से संबंध भी बनाती। नगर-बधू थी वह, उसका काम था, वेश्या थी वासवदत्ता, लेकिन अब देह में वह दीप्ति न दिखाईं देती थी। कुछ और आँखों में बस गया था जिसे वे जानती नहीं थी कि कैसे पाऊँ। अब धीरे-धीरे वक्त के साथ उसका देह में रस कम होता जा रहा था। उसका भी सौंदर्य धीरे-धीरे उतर पर आ रहा था। उपगुप्त के वो शांत आंखें उसका पीछा करती रहती थी। उसकी वह आभा, वो निर्मलता, वो चाहा कर भी नहीं भूल पा रही थी। रात को सपने में भी अचानक चौक पड़ती थी दासी को आवाज देती, पसीने से सराबोर दासी उसे पानी देती। फिर पुरी रात उसे निंद नहीं आती। अब मदिरा ने भी अपना काम बंद कर दिया था। वो होश को खोने की बनस्पत और बढा देती थी, वो आंखे उसका पीछा करती ही रहती.....।
लेकिन बात सुन ली थी उसने उपगुप्त की कि जब समय आएगा तब आ जाऊँगा। इतने बल पूर्वक कही थी बात कि यह बात भी साफ हो गयी थी: उपगुप्त उन लोगों में से नहीं है जिसे डि गाया जो सके। जो कहा है, वैसा ही होगा, समय कि प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। तो वासवदत्ता ने कभी बुलाने की चेष्टा नहीं की। कभी रहा पर आते-जाते शायद उपगुप्त दिखायी भी दे जाता, लेकिन फिर उसे बुलाने की हिम्मत ना कर सकी, शायद उसने इसे उचित भी नहीं समझा, न ही ये उचित था। संन्यासी ने बात कह दी थी। प्रतीक्षा और प्रतीक्षी ....उसका सारा जीवन बीत गया। एक आशा कि किरण प्रकाश पुंज की तरह उसके अंदर चमकती रही जाने अनजाने।
फिर एक रात्रि—पूनम कि रात्रि—उपगुप्त मार्ग से जा रहा थे। उन्होंने देखा कि कोई मार्ग पर रूग्ण पडा करहा रहा है। गांव के बाहर एक निर्जन स्थान पर शहर कि भीड़-भाड़, चमक दमक से दुर। उसने आवाज दी कोन है। वहां। वासवदत्ता केवल कराहती रही, उसका पुरा शरीर जर्जर, वसंत के दानों से गल सड़ गया था। वह सुंदर काया, सुगंधित इत्रों से जो महँकती थी वह आज गल गईं थी। उपगुप्त ने प्रकाश में देखा: ‘वासवदत्ता, अरे, पहचान मुझे मैं हु तुम्हारा उपगुप्त।
वासवदत्ता ने आंखें खोली शायद अंतिम धड़ी पास थी। साँसे भी मंद होती जा रही थी। उसने उसकी छुअन को पहचान लिया, उसके जलते ज़ख़्मों में एक शाति लता उतरती चली गर्इ। आंखें में जल धार बह निकली। उपगुप्त ने वासवदत्ता का सर उठा कर अपनी गोद में रख लिया। और वसंत रोग से उसके चेहरे पर फफोले पर स्नेह पूर्व हाथ फेरने लगा।
यह जो महारोग है—वसंत रोग इसको कहते है। नाम भी हमने क्या खूब चुना है, इस देश में नाम भी हम बड़े हिसाब से चुनते है। सारे शरीर पर काम-विकार के कारण फफोले फैल गए है। यौन-रोग है। लेकिन हमने नाम दिया है बसंत रोग—जवानी का रोग, वसंत का रोग जो अब तक सौंदर्य बनकर प्रकट हुआ था। वही अब कुरूपता बनकर प्रगट हो रहा है। जो अब तक चमड़ी पर आभा मालूम होती थी, वह घाव बन गयी है। सारा शरीर घावों से भर गया है सड़ रहा है।
वासवदत्ता: मुझे मत छुओ मुझे वसंत रोग हो गया है। कोई मुझे छूना नहीं चाहता। कोई प्रेमी नहीं बचा, सब नाक मुहँ पर कपड़ा रख कर मेरे पास से गुजर जाते है।‘ आज यौवन बीत गया ऐसे क्षण में कोई प्रेमी न बचा, कोर्इ नगर में रखने को भी तैयार नहीं है। मेरी घातक बीमारी तुम्हें भी लग जाएगी उपगुप्त मुझे एक घूँट पानी पीला दो, दो दिन से एक बूंद पानी गले में नहीं गया तीन दिन से मृत्यु का इंतजार कर रही हुं।
उपगुप्त ने अपने भिक्षा पात्र उसके कंठ से लगा दिया एक जल कि बूंद कंठ को ही नहीं अंदर की आत्मा को तृप्त कर गई। आंखे खुली की खुली रह गई मानों उपगुप्त को निहार रही हो। दम तोड़ दिया वासवदत्ता ने उपगुप्त की बाँहों में।
जिसके चरण चूमते थे सम्राट। एक असहाय अबला की मोत मरी वासवदत्ता। शहर से बहार फिकवा दिया था, कही ये रोग किसी दूसरे को न लग जाए। वही स्त्री जिसे लोग सर आंखें पर लिए फिरते थे, अंतिम समय वो सर, एक भिक्षु की गोद में जिसे भी वो भोगना चाहती थी।