मैं तुम्हें अब भी बहुत चाहता हूँ ....! - पंकज त्रिवेदी
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारी उन आँखों को
जो तरसती थी मुझे देखने के लिए
और फैलती रहती थी दूर दूर तक से आती हुई
पगदंडी पर...
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारे कानों को
जो उस पगदंडी से आते हुए मेरे कदमों की
आहट सुनकर खड़े हो जाते थे..........
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारे उन हाथों को, जिस पर
चूडियाँ आपस में टकराकर भी खनकती हुई
छेड़ती हो प्यार के मधुर संगीत को...
जिस पर हम दोनों कभी गाते थे प्यार के तराने......
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारे मन को
जो हमेशा सोचता रहता था मेरी खुशियों के लिए
आसपास के लोगों के लिए, दुखियों के लिए
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारे उस धड़कते हुए ह्रदय को
जो हरपल खुद को छोड़कर भी धड़कता था मेरे लिए
परिवार और बच्चों के लिए.....
मैं
देखना चाहता हूँ उन साँसों को
जो दौड़ी आती हैं अंदर-बाहर
जैसे तुम दौड़ी आती थी मेरे घर आने के
इन्तजार में बावरी होकर.....
मैं
देखना चाहता हूँ तुम्हारे पैरों को
जो उम्र को भी थकाते हुए दौड़ते रहते थे
मेरी हर आवाज़ पर.......
मैं
तुम्हें देखना चाहता हूँ तुम्हें
जिसने कुछ न कहकर भी सबकुछ किया था
खुद के सपनों को दफ़न करते हुए समर्पित करती थी
अपने अरमानों को.......
मैं
तुम्हें देखना चाहता हूँ
ईसी घर में, खानाती चूड़ियों और पायल के साथ
उस मन की सोच और धड़कते दिल के साथ
उन खड़े कानों और फ़ैली हुई आँखों के साथ.....
क्योंकि-
मैं जनता हूँ, तुम अब भी चाहती हो मुझे
मेरी प्रत्येक मर्दाना हरकतों की मर्यादाओं के साथ
मगर मैं कुछ नहीं कर सकता दूर से तुम्हें चाहकर भी
मर्द हूँ मैं, तुम औरत...
इतना जरूर कहूंगा कि-
मैं तुम्हें अब भी बहुत चाहता हूँ ....!
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16 comments:
khoooob saras Jadeja....Really...
Bahut sundar,bahut bhavuk!
सुन्दर कविता ...
सूंदर भाव लिए है.....मन प्रसन्न्ा हो गया
सुंदर भाव ...और सुंदर अभिव्यक्ति ...सादर ..
सुंदर भाव ...और सुंदर अभिव्यक्ति ...सादर ..
अनोखी रचना है भैया....
मन के तमाम भावों को पिरोकर, मन से लिखी, मन तक जाती....
सादर प्रणाम.
अपने मनके भावोको बडी सरलतासे निरुपा है आपने ।
अनोखा प्यार अनोखी रचना । वाह !
दोस्तों, मैं आप सभी का बड़ा अनुरागी हूँ... आप सभी हमेशा से मुझे प्रोत्साहित करते आयें हैं | "विश्वगाथा" आपका ही हैं और मैं आपका सेवक... धन्यवाद् |
सुंदर अभिव्यक्ति ..... उस इंतज़ार के लिए
मनको छु कर गई यह कविता!
सपना
हे औरत
मै मर्द हूँ
तुझे रुलाता भी हूँ
सहलाता भी हूँ
हर चीज देखने के बहाने
मै देखना चाहता हूँ
उस चीज को
जिस पर मेरी कुदृष्टी है
कुछ भी हो आखिर तू
औरत जो है
तेरे अंगो का अतिश्योक्ति वर्णन
और ये मनुहार
जानती हो क्यों ?
मै जताना चाहता हूँ
क्योकि मै मर्द हूँ
बाकी बेमानी है सब
इन बातो से मै युझे
पाना चाहता हूँ ................Mukand da
उस रात
चाँद नहीं निकला था
आकाश अँधेरे से
सरोबार था,
पुरुष ने स्त्री को देखा
उसने उसकी देह की भाषा
पढ़ ली थी,
उसको बहलाया फुसलाया
उसके कसीदे में गीत लिखे
उस पर कविताएं लिखी
उसको आजादी का अर्थ बताया
तरक्की के गुण बताये,
आखेट पर निकलने का शौक रखने
वाले की तरह
जगह जगह जाल बिछाया
नारी मुक्ति की बात कही
उसके रूप का वर्णन किया
सपनों के स्वपनिल संसार का
झूठ बोला,
स्त्री ने प्यार भरी आँखों से
उसकी आँखों में झांका,
तीतर की तरह पंख फड़फड़ाता
पुरुष उसको
निरीह सा लगा
वह उसे देखकर मुस्कराई
और सपनो के सुनहरे संसार में
उड़ने लगी,
आकाश की उत्कंठा में
लुका-छिपी का खेल देर-देर तक
चलता रहा
थके हुए क्षणों से
जिस चीज पर नारी नीचे गिरी
वह पुरुष का करीने से
बिछाया हुआ बिस्तर था............mukanda da
अत्यंत ही भावुक प्रेम मई रचना ..इंतज़ार में डूबी ...कोटि कोटि शुभकामनाएं....
purush ki khamosh chahat ka sunder chitran..
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