(१) पतंग
परदेस के आकाश पर
देसी मांजे से सनी

आकाँक्षाओं से सजी
ऊँची उड़ती मेरी पतंग
दो संस्कृतियों के टकराव में
कई बार कटते -कटते बची
शायद देसी मांजे में दम था
जो टकरा कर भी कट नहीं पाई
और उड़ रही है .....
विदेश के ऊँचे- खुले आकाश पर ....
बेझिझक, बेखौफ ....


() प्रतीक्षा
पुस्तकों से लदी- भरी
दुकान में
ग्राहकों को देख कर
कोने में दुबकी पड़ीं
धूल से सनी
दो तीन हिन्दी की पुस्तकें
कमसिन बाला सी सकुचातीं
विरहणी सी बिलखतीं
अँगुलियों के स्पर्श को तरसतीं
पाठक प्रेमी के हाथों में
जाने की लालसा में
प्रतीक्षा रत हैं
पर अंग्रेज़ी दादा का वर्चस्व
प्रेमियों को
उन तक पहुँचने नहीं देता......


(३) सच कहूँ

सच कहूँ,
चाँद- तारों की बातें
अब नहीं सुहाती .....

वह दृश्य अदृश्य नहीं हो रहा
उसकी चीखें कानों में गूंजती हैं रहती |
उसके सामने पति की लाश पड़ी थी,
वह बच्चों को सीने से लगाए
बिलख रही थी ....
पति आत्महत्या कर
बेकारी, मायूसी, निराशा से छूट गया था |

पीछे रह गई थी वह,

आर्थिक मंदी की मार सहने,
घर और कारों की नीलामी देखने |
अकेले ही बच्चों को पालने और
पति की मौत की शर्मिंदगी झेलने |

बार -बार चिल्लाई थी वह,
कायर नहीं थे तुम
फिर क्या हल निकाला,
तंगी और मंदी का तुमने |

आँखों में सपनों का सागर समेटे,

अमेरिका वे आए थे |
सपनों ने ही लूट लिया उन्हें
छोड़ मंझधार में चले गए |

सुख -दुःख में साथ निभाने की

सात फेरे ले कसमें खाई थीं |
सुख में साथ रहा और
दुःख में नैया छोड़ गया वह |
कई भत्ते देकर
अमरीकी सरकार
पार उतार देगी नौका उनकी |

पर पीड़ा,
वेदना
तन्हाई
दर्द
उसे अकेले ही सहना है

सच कहूँ,
प्रकृति की बातें
फूलों की खुशबू अब नहीं भरमाती......
डॉ. सुधा ओम ढींगरा (यू. एस. ए )