प्रतिशोध - पंकज त्रिवेदी
प्रतिशोध की ज्वाला
भड़क रही है मेरे अंदर
घुटन सी महसूस होती है
निराशा भी हैं,
धोखा भी हैं,
आशा-अपेक्षा की नींव पर
खड़ी थी सपने की ईमारत
वो भी अब गिर चुकी हैं
किस तरह से जीना होगा मुझे
यह भी नहीं पता था मगर
हर पल सबको साथ लेकर
किसी के एक बोल पर दौड़ता रहता
और
न जाने क्यूं ? कुछ नहीं कहना हैं मुझे......
जाने दो उस बात को.........
अब मैं -
जो भी हो.... ख़त्म होना हैं मुझे
लोग चाहें जिस तरह भी ख़त्म करें
मैं उन्हें सहयोग देता रहूँगा
मगर -
अपनी इंसानियत को,
अपनी आत्मा को,
कभी भी ख़त्म नहीं होने दूंगा... !!
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2 comments:
Bahut sundar likha hai ........Laajwaab...
nice
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