"उसको नहीं देखा हमने कभी पर इसकी ज़रुरत क्या होगी
ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी!"
इस गीत की इन चंद पक्तियों में माँ की जो महिमा और गरिमा समाई है इससे अधिक महिमा विश्व का कोई भी शब्दकोष माँ के ममत्व और गरिमा को परिभाषित करने में स्वयं को असमर्थ ही पाएगा. कहते हैं ईश्वर हर जगह मौजूद नहीं हो सकता इसीलिये उसने माँ बनाई. ब्रह्माण्ड के समस्त गृह, नक्षत्र और देवातगण भी जिसके क्रोड़ में शरण पाकर स्वयं को सुरक्षित पाते हैं. ऐसी होती है माँ. वैसे तो हर दिन माँ से जुड़ा होता है पर आईये आज मातृ दिवस के सुअवसर हम अपनी जननी को पुनः नमन करते हैं.
-नरेन्द्र व्यास
ये हम सबका सौभाग्य है कि श्री सुरेश ओबेरॉय जी को जगदगुरु गुरु श्रद्धेय शंकराचार्य जी ने मातृ दिवस पर जो सन्देश प्रेषित किया वो उन्होंने हब सबसे साझा करने के लिए लिए यहाँ प्रेषित किया हम उनका तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं..

MY GURUJIS MESSAGE FOR MOTHERS DAY,

'MOM' asked: "Who is more beautiful,me or the moon?

The best answer given by the CHILD: "I don't know but whn I see U, I forget the moon & when I see the moon I remember U...!!! :-)

माँ ने पूछा, ‘‘ कौन ज्यादा सुन्दर है, मैं या चंद्रमा?
सबसे अच्छा उत्तर बच्चे ने दियाः ‘‘ मुझे नहीं पता पर जब मैं तुम्हें देखता हूँ तो चंद्रमा को भूल जाता हूँ और जब चाँद को देखता हूँ तो तुम याद आती हो!
***
(मूल अंग्रेजी में, अनुवाद जया शर्मा केतकी)

आज शादी के पूरे 21 साल बाद मेरी पत्नी चाहती है कि मैं किसी और महिला को डिनर पर ले जाउँ और पिक्चर भी दिखाउँ। उसने कहा , मैं तुम्हें प्यार करती हूँ, लेकिन मैं यह भी जानती हूँ कि वह भी तुम्हें बहुत प्यार करती है और तुम्हारे साथ कुछ समय गुजारना चाहती है। वो महिला जिसके साथ मेरी पत्नी मुझे भेजना चाहती है, मेरी माँ है। जो पिछले 19 सालों से विधवा है और अपने काम और बच्चों की जिम्मेदारियों के कारण मैं उससे अवसर विषेष पर ही मिल पाता हूँ।
जिस रात मैंने उसे डिनर पर जाने और फिल्म देखने जाने का कहा तो वह बोली, क्या हो गया है तुम्हें? तुम ठीक तो हो न? कैसी बहकी - बहकी बातें कर रहे हो। क्योंकि मेरी माँ का मानना है कि देर रात का बुलावा, बुरी खबर का संकेत है।
मैंने कहा, तुम्हारे साथ कुछ समय गुजारना सुखद होगा। केवल हम दोनों। उसने एक पल सोचा और कहा, मुझे बहुत अच्छा लगेगा।
उस शुक्रवार जब काम से फ्री होकर मैं उसे पिक करने जा रहा था तो थोड़ा नरवस था। जब मैं उनके घर पहुँचा तो नोटिस किया कि वह भी हमारी इस डेटिंग को लेकर कुछ नरवस सी हैं। उसने अपने बालों को कर्ल किया हुआ था और वही ड्रेस पहना था जो उसने अपनी लास्ट मेरिज एनीवर्सरी पर पहना था। मुझे देखकर वह कुछ इस तरह मुस्कुराई जैसे कोई परी हो। उसने कार के अंदर आते हुए कहा, मैंने अपने मित्रों से बताया कि मैं अपने बेटे के साथ बाहर जा रही हूँ , तो वे बहुत खुष हुए। ‘वे हमारी बैठक के बारे में सुनने के लिए इंतजार नहीं कर सकते।‘

हम एक रेस्तरां, जो बहुत सुरुचिपूर्ण और आरामदेह नहीं था, में गए। वह मेरा हाथ इस प्रकार थामे थी जैसे विष्व की प्रथम महिला हो।
हम बैठ गए, मैंने मीनू पढ़ना शुरु किया। वह बड़े अक्षर ही पढ़ पाती थी। पढ़ते हुए देखा कि उसके होठों पर अपने बीते समय को याद करने वाली मुस्कुराहट थी।
मैं भी इसी प्रकार आर्डर करने के लिए मैनू पढ़ा करती थी जब आप छोटे थे, उसने कहा। अब यह समय है कि आप आराम करो और मैं उस इस जिम्मेदारी को निभाउँ, मैंने जवाब दिया। खाना खाते समय कुछ विषेष बातें नहीं हुईं। हम दोनों ने अपने वर्तमान क्रियाकलापों की चर्चा की। बातें करते-करते समय का पता ही नहीं चला और पिक्चर छूट गई। जब उसका घर आ गया, उसने उतरते हुए कहा, मैं तुम्हारे साथ दोबारा डेट पर जा सकती हूँ, अगर तुम मुझे आमंत्रित करने की इजाजत दो। मैंने हाँ कर दी। जब मैं घर पहुँचा, मेरी पत्नी ने पूछा, तुम्हारी डिनर डेट कैसी रही? मैंने उत्तर दिया, बहुत बढ़िया! जैसा मैंने सोचा था, उससे भी कहीं ज्यादा अच्छी।

कुछ दिन बाद हार्ट अटैक से माँ की मृत्यु हो गई। यह सब इतना अचानक हुआ कि हम उसके लिए कुछ भी नहीं कर पाए। उसके कुछ ही दिनों बाद मुझे एक लिफाफा मिला जिसमें उसी रेस्टारेन्ट की रसीद थी जहाँ मैंने उस रात उसके साथ डिनर किया था। लिखा था, ‘‘मैंने इस बिल का भुगतान अग्रिम में कर दिया है मुझे यकीन नहीं है कि मैं वहाँ हो सकती लेकिन, फिर भी, मैंने दो प्लेटों के लिए भुगतान किया है-आप के लिए और आपकी पत्नी के लिए। तुम कभी नहीं समझ सकोगे कि वह रात मेरे लिए कितनी महत्वपूर्ण थी।
‘बेटा मैं तुम्हें प्यार करती हूँ,‘
उसी क्षण मुझे समझ आया कि अपने परिवार के सदस्यों को दिए गए समय का क्या महत्व है और उनके यह कहने का अर्थ भी कि ‘मैं तुम्हें प्यार करती हूँ।‘ जीवन में अपने परिवार से जरुरी कुछ भी नहीं है। उन्हें उतना समय जरूर दें जितना उनका हक है। हो सकता है जब तुम्हारे पास उन्हें देने के जिए समय हो तब वे तुम्हारे साथ न हों।

कोई कहता है, प्रसव होने के बाद छः सप्ताह लगते हैं, माँ को सामान्य होने में। कहने वाले को नहीं पता कि जब कोई माँ बन जाता है तो सामान्य होना उसके लिए इतिहास की बातें हो जाती है।
कोई कहता है माँ अपने दूसरे बच्चों से उतना प्यार नहीं करती जितना अपने पहले या बड़े बच्चे से। हो सकता है उसके दो या दो से अधिक बच्चे नहीं है।
किसी ने कहा, एक माँ होने का सबसे मुश्किल हिस्सा प्रसव पूर्व पीड़ा और प्रसव है।
किसी ने कभी नहीं देखा जब उसका बच्चा बाल मंदिर जाते समय पहले दिन वह बस पर चढ़ाती है या एक सेना के बूट शिविर का नेतृत्व करने हवाई जहाज पर भेजते समय, उसे कैसा लगता है।
कुछ कहते हैं कि माँ निष्चिंत हो जाती है जब उसके बच्चे की शादी हो जाती है। कहने वाला यह नहीं जानता कि उसी दिन से माँ की साँसों धड़कनों के साथ उसके दामाद या बहू की एक धड़कन और जुड़ जाती है। कोई यह कह देता है कि माँ की जिम्मेदारियाँ खत्म हो जाती हैं जिस दिन उसका सबसे छोटा बच्चा घर से बाहर चला जाता है। शायद कहने वाले के नाती-पोते नहीं होंगे।
कुछ माताएं कह देती हैं कि तुम्हारी माँ जानती हैं कि तुम उससे प्यार करते हो तो कहने कि क्या जरूरत है। शायद वो खुद सही मायने में एक माँ नहीं हैं।
इस विचार को उस महान् माँ तक और हर उस बंदे तक पहुँचा दो जिसकी माँ है।
यह है एक माँ होने के बारे में। आपके जीवन में जो भी लोग हैं उनकी प्रशंसा करना, उन्हें समय देना चाहिए जब आप उनके साथ हैं ... यह बात मायने नहीं रखती कि व्यक्ति कौन है!
- सुरेश ओबेराय

पेटी में लिपटी रखी
अम्मा की कांजीवरम साडी
जतन से खोलते उसकी तह
यूं महसूस हुआ जैसे
बिस्तर पर पड़ी
जर्जरकाया माँ को
हल्के से छुआ हो
ठन्डे पड़े हाथ की गर्माहट को
साड़ी की तह के बीच
गाल पर महसूस किया माँ

सालों से लाकर में रखे बूंदे
आज निकाल कर लाई हूँ यूं ही
न कोई उत्सव न कोई जलसा
कितने ही आधुनिक जेवरों के बीच
कितने पुरातन
पहली बिटिया की जचकी के
कितने ही पहले
बनवाकर रख लिए थे तुमने
और बिफर पड़ी थी में
क्या माँ कोई ढंग की
डिजाइन बनवाई होती
तुम्हारा धुंआ धुंआ चेहरा
रह रह कर आईने में
बूंदों की जगह झलक जाता है माँ

तरतीब से जमी
साड़ियों की अलमारी
यूँ ही खोल कर बैठी हूँ आज
तुम्हारी दी हुई साड़ियों की
अलग तह लगाते हुए
कभी सोचा ही नहीं
बाबूजी की पेंशन
भैया की सीमित आय में
कैसे ससुराल में मेरे मान को
बनाये रखने के लिए
तिल तिल जोड़ कर
इतनी साड़ियाँ दीं तुमने
कभी तुम्हे ख़ुशी नहीं जताई
कभी न माना आभार
आज साड़ियों का ढेर
अपने दंभ से बहुत बहुत
बड़ा नज़र आता है माँ

वो नानी की सिंगार पेटी
दादी के पानदान का वो सरौता
संजो कर रखे थे
जो तुमने अपने यादों के पिटारे में
साधिकार ले आयी थी जिन्हें
आज उन सब चीजों में
तुम्हारे न होने के बाद भी
तुम्हारा ममतामयी निरीह चेहरा
नज़र आता है माँ .
***
- कविता वर्मा
माता एक सामाजिक संस्था: मीना त्रिवेदी

माता के अनेक सामान अर्थी शब्दोको सुनते ही एक छवि दिखती है जिसमे रंग भरे है वत्सल्यके ,स्नेह्के, त्यागके निष्ठाके ,अथक सेवाके,( और अनेक रंग जो मुझे याद नहीं ,आपको याद हो तो भर सकते है)
कई लोगोने कहा माँ याने पहला गुरु,
माँ याने कल्पतरु.
माँ भगवानका रूप .
कई कितनी कविताये
माके गौरव सम्मानके लिए रची गयी .
कुम्हार अपने चाकड़े पर मिट्टीके गोलेको जैसे घडता है
ठीक उसी तरह दुनियाके हर समाजने माको घड़ा ,रूप दिया.
क्युकी माकी ज़रुरत थी परिवारको पुष्ट करनेके लिए.
और माँ ये करती रहे ख़ुशी से इसलिए उसे देवी कहके पूजा करी.
अपनी संततिका जतन तो हर जीवकी मादा करती है.
किन्तु मानव माँ जैसे गुणोसे लदी नहीं होती.
मानव माँ इस गौरवकी खुशीके लिए अपनी हर क्षमताको उजागर नहीं होने देती.
ऐसे पिन्जरेमे बंद हो जाती है की उसे पंख है, उड़ान भर सकती है ये ही भूल जाती है.
इसीको नाम दिया जाता है वात्सल्य
ममता...त्याग.सहिष्णुता
जो हर माके रक्तमे बहता है
माँ बन पाना इसे सुभाग्य माना गया. माँ बननेकी प्रक्रियामे स्त्रीको जो लाड प्यार मिलता है उससे कोई भी खुश होगा.व जो स्त्री माँ न बन सके उसको इतना कोसा जाता है की किसीभी किमतपे माँ बनना चाहती है .यहाँ तक के कोई भी फल खाया, व्रत किया ऐसा जिसमे किसीके बच्चेकी
जान ही क्यों न लेनी पड़े.. किसीका बच्चा
भी चुरा ले सकती है..
कामका विभाजन, स्त्रिकी सृजनात्मकता जैसे भावुक रुपोसे शायद मोहित होके स्त्रीने ये स्वीकारा होगा.
किन्तु इसकी कीमत जो चुकाई है, चुकाती है उसका भी उसे एहसास न हो ऐसा पूरा बंदोबस्त इस समाजके बन्दोने जबरदस्त किया.
ऐसा जबरदस्त किया .. की ऐसा न कर पाना एक अभिशाप मानने लगी. यदि कोई विद्रोही इससे अलग बर्ताव करे तो.. कर ही नहीं सकती क्युकी उसके सामने और कोई विकल्प होता ही नहीं.
कभी कही पढ़ा था: परिवार सत्ता सम्बन्ध . जब पढ़ा तब तो पल्ले नहीं पड़ा था. किन्तु आज कुछ कुछ ज़लक दिख रही है इन सलाखोंकी सुहाने डोरकी .
Matru दिन पर क्या हम माँ नामकी संस्थाको थोडा आज़ाद होने देंगे?त्याग,स्नेह, सेवा निष्ठां ये बहुत अच्छे गुण है जो स्त्रिया सीखती है क्यूंकि उसके अलावा और कोई चारा नहीं होता.क्या हम ऐसा माहोल बना सकते है जिसमे स्त्री पसंद्से त्याग, स्नेह समर्पण करे.. और पुरुषभी इन अच्छे गुनोको आत्मसात करे.ताकि भविष्यमे माँ नामकी संस्थामे शोषण की बू न आये .
हो सकता है मैंने जो कहना चाह है ये केवल मेरी ही सोच हो.. यदि आप पसंद नहीं करते तो ऐसा कहने के लिए आप आज़ाद हो.
किन्तु मई जानती हु ये मेरी अकेलेकी सोच नहीं है. बहुतोने ये प्रश्न खड़े किया है. बहुत अभी असम्नाज्समे है की इन्हें प्रकट करे या न करे..
जो भी हो मेरे मनमे इन प्रश्नोने तुमुल घमासान तूफान मचाया है..
क्या सचमे ऐसा सम्मान माको मिलता है?
४० से ६० के बिचकी माँ को देखिये
क्या उसका रूप है रंग है,कही भी आत्म सम्मानकी झलक भी महसूस होती है?
जिसने अपने अस्तित्व तक को मिटा दिया वो परिवार उसे कैसे देखता है?
जब बच्चोंको ज़रुरत न रही माकी बात ख़तम.
पुराना बाजा जो मधुर संगीत बजाता था अब नए साधनोमे उसका कोई नाम न काम.
उसी तरह..
उसके उपरकी उम्रकी माँ तो बेचारी बनके सिकुड्के अपनी जिन्दगीको कोसती हुई..
***
- मीना त्रिवेदी
"माँ" : गीता पंडित


"माँ"
एक शब्द
सिमटे हैं जिसमें सातों समंदर

देखा है
बड़ी सी बिंदी सजाये
सीधे पल्लू की साड़ी में
चौंधिया जाती थीं आँखें
वो खुशी जब पापा लाते थे
कोई उपहार
तो चुपके से दर्पण के सामने
हौले - हाले मुस्कराते हुए
जाने क्या बतियाते हुए
कुछ - कुछ कहती थी माँ
धीरे=धीरे अपने आप से

कितनी सुंदर
दिखती थी ना "माँ" |

अथक मुस्कराहट अधरों पर
और आँखों में वात्सल्य
जैसे
भोर ने सीखे थे
किरणों के गान यहीं से
पंछी लेते थे
हर सुबह उड़ान यहीं से |

लेकिन आज पाखी नहीं आते
गहरा गया सूनापन
खो गया नभ का इंद्र-धनुष
बालों पर बिछा दी धूप ने सफेद चादर
खोई - खोई सी
दिखती है जाने क्या ढूँढती सी |

शायद वो जो चाहा
हो ना पाया
जो पाया वो चाहा ना था
बंद हैं अलमीरा में
वो विगत वर्ष जिनमें
कहीं वो भी पडी हैं बंद


काश ! दे पाती मैं उसे वो आकाश
जिसमें पाखी बन उड़ती "माँ"|
***
-गीता पंडित
माँ....तुम कहाँ चली गयीं..!: अश्विनी त्यागी



माँ....तुम कहाँ चली गयीं....
मैंने देश क्या छोड़ा तुमने ..देह छोड़ दी....
मुझे पता ही नहीं चला....तुमने केन्सर का बहाना बना लिया....
इतनी नाराज़ तो नहीं थी तुम...

तुम थीं तो डर नहीं लगता था....
छूप जाने को तुमहरा आँचल था....
हर ज़रुरत को तुम पहले ही कैसे जान जाती थीं...
पिता ने डांटा.. तो तुमने दुलारा...
दुनिया से दु:खी हुआ.. तो तुम बनी सहारा...
तुम अपने हाथों से छूकर.. हौसला कैसे जगा देती थीं..
हर मुश्किल से लड़ गया मैं...
हर मंजिल पे चढ़ गया मैं....
अकेला होने नहीं दिया...
हौसला खोने नहीं दिया...
कभी लगा ही नहीं....
कुछ नामुमकिन भी होगा...
" हो जायेगा" ..
तुमहरा यह कह देना सफलता की सीढियां बन गया...
मैं चलता गया ..... वक़्त बदलता गया ...
आज तुम नहीं हो.....
मैं दूंढ़ रहा हूँ तुम्हें...
किससे कहूँ..... जो सिर्फ तुमसे ही कह सकता हूँ...
हालाँकि बेटियाँ माँ लगने लगी हैं...
पर उनकी आँखों का भीगना देख नहीं पाऊंगा...
बस ऐसे मैं तुम्हे दूंढ़ रहा हूँ...
..तुम नहीं हो....
कई बार अचानक जग जाता हूँ....
तुम्हारा हाथ अपने सर पे महसूस कर पता हूँ...
तुम्हरी खुशबू से तर हो जाता हूँ ....
तब लगता है...
तुम कहीं गयी नहीं हो ...
तुम मेरे आसपास ही हो...
यहीं कहीं हो...
यहीं कहीं हो...!!
माँ .........!
***
-अश्विनी त्यागी
एक बार फिर तुम मुझे पुकारो : जया शर्मा केतकी



मेरे अंदर से तुम्हारी, आवाज हमेशा आती है,माँ
जो मुझे भटकने से बचाकर पथ दिखाती है।
तुम सुन रही हो न माँ, मैं तुमसे ही तो कहता हूँ,
हर सुख-दुख अपना, बाँटता हूँ खुशियाँ और गम दोनों।
मेरी खुशी में डूब जाती हो तुम, दे देती हो और खुश होने का आशीष।
मेरा दुख-दर्द सुनकर, गीले हो जाते हैं, तुम्हारी आँखों के कोने,
होले से पीठ पर तुम्हारी ममता का स्पर्श, कम कर देता है उदासी।
फिर मेरे अंदर से तुम बोलती हो माँ, देखो हिम्मत न हारो,
अपने मन से एक बार फिर तुम मुझे पुकारो।
***
जया शर्मा केतकी
स्मरण - पंकज त्रिवेदी




माँ थी तब उसे संभाल नहीं पाया था मैं | संयोग की बात कहूं या अपनी असमर्थता? माँ की इच्छा थी कि मरने से पहले एक बार जन्मभूमि वाराणसी में काशी विश्वनाथ के दर्शन करूं | मगर कुछ न हो सका...

माँ ने बचपन में सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन किया था, मगर ससुराल में आते ही, मिट्टी काठ, खेत, गाय-भेंस और गोबर | बहुत मज़दूरी की थी और यहाँ देसी गुजराती बोली और रिवाज | कहाँ जाएं बेचारी... करती सबकुछ काम और खुद को समर्पित करके ढाल दिया था खुद को गुजराती बहू के रूप में.
माँ थी वो मेरी...! अपनी जेठानी के ताने पर बीस साल तक पाँव में जूते नहीं पहने थे | आखिर जब पिताजी नौकरी में लगे | मन्नत पूरी करने के लिए हमारे गुजरात-राजस्थान सरहद पर आबू से नजदीक अम्बाजी माता के दर्शन करने जाना था | पैसे नहीं थे ज्यादा | हम तीन भाई, एक बहन हैं | सभी को घर छोड़कर मैं, बाबूजी और माँ अम्बाजी गए थे | ढंग से पहनने के न कपडे थे और न ज्यादा पैसे | धर्मशाला में रात गुजारनी थी और ठण्ड ने भी कसौटी करनी थी, माँ ने अपनी साड़ी के पल्लू को ओढाया था मुझे | बाबूजी सारी रात जागते हुए थीठुराते रहे थे | मेरी नींद भी कहाँ थी?
आज भी वो दृश्य आँखों के सामने तैरता है.... घर की खिड़की से दूर तक जाती हुई सड़क को देखता हूँ तो नज़र आता हैं एक छोटा सा परिवार.... मैं अपनी साईकिल खींचता हूँ पवन के जोर के सामने | पीछे बैठी है मेरी बीवी और उसके हाथ में है एक छोटी सी बेटी... गाथा ! फिर तो विश्वा पैदा हुई और कार की सैर उनके नसीब हुई | आज सबकुछ हैं मेरे पास | याद आता हैं कि माँ की अंतिम ईच्छा वाराणसी जाने की थी.... मगर जब कुछ नहीं था तो माँ-बाबूजी थे और आज सबकुछ हैं तो माँ और बाबूजी ही नहीं... !
***
-पंकज त्रिवेदी