बहुत पास से निकल गए तुम
जाते हुवे पुकार न पायी !
जीवन भर की थकन भरी थी
फीकी -फीकी मुस्कानों में
इतनी गहरी रची उदासी
चित्र बनाये सुनसानो में
पलकों पर अधधुलके आंसू
का, मै रूप निहार न पायी
जन्म -जन्म की बिरहा -कुल थी
खड़ी रह गयी बिना पुकारे
तुम भी अपने में खोये थे ..
रुके नहीं आसू के द्वारे
अंतर्लीन चरण की गति को
अश्रु -प्रवीन पखार न पाए
बोझिल -बोझिल सी पलकों पर ,
ठहरा हुआ अकेलापन था
अपने को निहारते थे दृग
टुटा हुआ सपन दर्पण था
सहमी सी रह गयी तुलिका ...
मै वह चित्र उतार न पायी ..
बहुत पास से .......
साथ का अवसर पाने को
अमृत लिए तृप्ति चलती थी
एक दृष्टि का दान मिल सके ..
बंधे हाथ मुक्ति चलती थी ..
अपराधी सा मिलन समय था ...
अपना जनम सँवार न पायी ......
बहुत पास से निकल गए तु
जाते हुए पुकार न पायी ...